एक लड़की
धड़कनों की पुकार थी, क्या थी
या कि जाने-बहार थी, क्या थी
तन-बदन पर जो छा गयी आकर
वो बसन्ती बयार थी, क्या थी
सर्द मौसम था जबकि पहले पहल
शाम की चाय पर मिली थी वो
देखकर मैं भी मुस्कुराया था
और कचनार सी खिली थी वो
अनकही अनसुनी कहानी थी
धूप जाड़े की वो सुहानी थी
भूल जाऊँ तो किस तरह भूलूँ
पाक उल्फत की जो निशानी थी
ज़ुल्फ़ थी या कोई सावन की घटा
होंठ थे या कि सुर्ख़ पंखुड़ियाँ
देखकर झील सी गहरी आँखें
रोज़ जलती थीं हसद से परियाँ
हक़ जताने की अदा क्या कहिए
रूठ जाने की अदा क्या कहिए
फोन में चुपके से अपना नम्बर
डाल जाने की अदा क्या कहिए
शाम की सुरमई निगाहों में
खूबसूरत सा ख़्वाब बन के रही
चुलबुली सोनचिरैया जैसी
आशियाने में मेरे मन के रही
मौज थी, नाव थी, साहिल थी वो
मेरे हर रंग में शामिल थी वो
कभी आसान हमसफ़र सी रही
मन्ज़िलों सी कभी मुश्किल थी वो
वह मेरे साथ यूँ रही जैसे
अनुत्तरित सा प्रश्न हो कोई
मैं था जैसे कि देख राधा को
चकित-मुदित सा कृश्न हो कोई
शोख़ झेलम, चिनाब जैसी थी
वो ग़ज़ल की किताब जैसी थी
भूल पाया न मैं जिसे पल भर
एक लड़की गुलाब जैसी थी
© शैलेन्द्र ‘असीम’