#एक युद्ध : भाषाप्रदूषण के विरुद्ध
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★ #एक युद्ध : #भाषाप्रदूषण के विरुद्ध ★
मेरी साली का फोन आया। वो अपनी दीदी से बात करना चाहती थी। मैंने पुत्र से कहा, “अपनी माता से कहो रीता मासी का फोन है।” यह तब की बात है जब अपने देश में मोबाइल फोन अभी कल्पनासंसार की वस्तु थी। फोन का चोंगा मेरे हाथ में ही था कि रीता का स्वर सुनाई दिया, “यह क्या जीजाजी, हमारी दीदी अभी इतनी बूढ़ी नहीं हुई हैं कि आप बच्चों को माताजी कहना सुझा रहे हैं।”
“रीता, सत्ताईस वर्ष की आयु में प्रथम कन्या को जन्म देते ही तुम्हारी दीदी माता कहलाने का सौभाग्य अर्जित कर चुकी।” तभी उसकी दीदी आ गई।
उस घटना के चार दशक उपरांत का वृत्तांत, पुत्री सुजाता ने आक्षेप किया कि “पापा, आप अपनी रचनाओं में कठिन शब्दों का प्रयोग क्यों किया करते हैं?” मेरे लेखन की पहली समीक्षक-आलोचक वही है।
“पुत्री, तुमने पापा पुकारने का नियम बांध लिया तो पिताजी कठिन शब्द हो गया। किशोरावस्था में जब मैं श्री गुरुदत्त के उपन्यास पढ़ा करता था तो मुझे अस्वाभाविक लगता था कि उनकी कहानियों के निरक्षर पात्र भी सुसंस्कृत भाषा में संवाद किया करते हैं। समय बीतने के साथ-साथ मैं जान गया कि वे जता रहे हैं कि जब तक हम अपनों के साथ अपनी बात अपनी भाषा में करना नहीं सीख जाते तब तक हम मानसिक रूप से दासत्व को ही भोग रहे हैं। परंतु, आज स्थिति उस दिन से कहीं अधिक भयावह है।”
“मेरा समस्त लेखकीयकर्म उन शारदापुत्रों को समर्पित है जिनके तपोबल से ही आज भी इस धरा से उपजे प्रथम स्वर न केवल जीवित हैं अपितु निरंतर पल्लवित पुष्पित भी हुए जा रहे हैं। मैं अपनी मातृभाषा पंजाबी में भी लिखा करता हूं। मुझे ठीक-ठीक निश्चित नहीं है कि मैंने पहले पंजाबी में लिखना आरंभ किया अथवा हिंदी में। पंजाबी भाषा ने अरबी फारसी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात किया है। यथा पंजाब अथवा पंजाबी शब्द का पंज तो संस्कृत से है लेकिन, आब फारसी भाषा का शब्द है। मैं पंजाबी में लिखते समय ऐसे शब्दों को अछूत नहीं मानता। लेकिन, जब मैं हिंदी में लिखता हूं तब इस ओर सचेत रहता हूं कि किसी विदेशी भाषा का कलंक मेरे लेखन में नहीं आवे।”
“किसी भी भाषा को दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाने में हिचक नहीं होनी चाहिए। हमने स्कूल को अपना लिया परंतु, जिस शाला से स्कूल निकला उसे छोड़ दिया। यह अनुचित है। मैं यदा-कदा उर्दू में भी लिखा करता हूं जिसकी लिपि देवनागरी ही रहती है। उर्दू किसी भी दूसरे देश की भाषा नहीं है। पाकिस्तान की भी नहीं।”
“किसी समय हिंदी फिल्में समूचे विश्व में हिंदी का प्रचार किया करती थीं लेकिन, आज साहस, शौर्य अथवा देशभक्ति पर आधारित चलचित्रों के नाम भी कलंकित हैं। “भुज . . .” और “तान्हाजी . . .” के साथ विदेशी भाषा के शब्दों को जोड़ना ऐसा ही है जैसे रेशमी वस्त्र पर टाट की चिंदी थेपी गई हो।”
“ठीक है, पिताश्री! लेकिन, आप ऐसे प्रतीक, बिंब, अलंकार चुनते हैं कि संभवतया अधिकांश पाठक समझ नहीं पाते होंगे? आपकी नवीनतम कविता “बंदी मन मन की कहे” मेरी बात का समर्थन करती है।” सुजाता पुत्री का स्वर कठोर व दृढ था।
“पुत्री, अधिकांश रचनाकार जो दूर देश से आए इस्लामी मत के उत्सव ईद की चर्चा अपनी रचनाओं में किया करते हैं तब उनमें से अधिकतर नहीं जानते कि ऐसी कौनसी लोकरंजक घटना घटने से यह अवसर उत्सव हो गया? एक और ऐसा ही प्रकरण है जब अधिकांश राजनीतिक गडरिये भेड़ों को बधाई दिया करते हैं। वो गल्पकथा है क्रिसमस की। यह शब्द दो शब्दों के मेल से बना है, क्रिस्ट और मस अथवा मास। यह दिन ऐसे काल्पनिक पात्र का जन्मदिन माना जाता है जिसके जन्म के तिथि मास वर्ष कुछ भी निश्चित नहीं हैं। क्रिस्ट यदि व्यक्तिवाचक संज्ञा है तो मास क्या है? विश्व की किसी भी भाषा में मास शब्द का अर्थ दिन अथवा जन्मदिन नहीं होता।”
“अब बात “#बंदी मन मन की कहे” की। प्रथम पंक्ति है,
#सातों मरुत प्रेमपीड़ा विरुद्ध
#गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुन्दरकांड में, जब हनुमान जी ने लंका मे आग लगाई थी, उस प्रसंग पर लिखा है :
#हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्ठहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।२५।।
अर्थात जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि को समर्पित कर दिया तब भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे।
हनुमान जी अट्ठहास करके गर्जे और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे।
वेदों में वायु की सात शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है लेकिन, उसका रूप बदलता रहता है। जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु लेकिन, ऐसा नहीं है।
वास्तव में जल के भीतर जो वायु है उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का अर्थ यह है कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में सात प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।
ये सात प्रकार हैं- १.प्रवह, २.आवह, ३.उद्वह, ४. संवह, ५.विवह, ६.परिवह और ७.परावह।
१. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं।
२. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
३. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्रमंडल घुमाया जाता है।
४. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्रमंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्रमंडल घूमता रहता है।
५. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रहमंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रहचक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है।
६. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
७. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुवचक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
इन सातों वायु के सात-सात गण हैं जो निम्न स्थान में विचरण करते हैं : ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह
७x७=४९। कुल ४९ मरुत हो जाते हैं जो देवरूप में विचरण करते रहते हैं।
लेकिन, मैंने यहां मरुत को राजनीति की बहुदलीय अवस्था के बिंबरूप में लिया है। सर्वविदित है कि प्रेम से पीड़ा उपजती है और वर्तमान राजनीति की लगभग सभी धाराएं प्रजा अथवा जनता के प्रति प्रेम के पक्ष में नहीं दिखतीं।
कविता की द्वितीय पंक्ति है :
#सरयू में नीर आज कैसे बहे
“जब श्रीराम निजधाम लौटने को सरयू में समाधिस्थ होने लगे तब संपूर्ण अयोध्यावासी उनके साथ हो लिए। तब उन्होंने संभवतया उन्हीं भाग्यवानों को साथ लिया जो रामावतार में उनके सहयोगी होकर धरती पर आए थे। और, आज जब कोई किसी स्वार्थवश सरयू में उतरने की बात कहता है तब सरयूजल राम-राम पुकारा करता है।”
कविता आगे बढ़ती है :
#सीता में घट घटबीच लाजपट
आज कांधे धर्महल कौन धरे
कौन राजऋषि लोकहित जो वरे
“खेतों में हल द्वारा खींची गई रेखा सीता कहलाती है। राजऋषि जनक ने लोकहितार्थ जब हल चलाया तब उसी सीता में से प्रकट हुए कलश में जो कन्यारत्न उन्हें मिला उसे पुत्रीरूप में ग्रहण करके उन्होंने उसका नामकरण सीता किया। सीता हमारी संस्कृति, धर्म व मानवोत्थान की इच्छा का प्रतीक है। सीता हमारी लाज भी है और सीता अधर्म के विरुद्ध धर्म की फहराती विजयपताका भी है। कांधों पर हल धरे बिना इसकी प्राप्ति संभव नहीं है। और आज किसी राजपुरुष की न तो ऐसी अभिलाषा दिखती है और न ही किसी में ऐसी योग्यता के लक्षण दीखते हैं।”
“इस विचाराधीन कविता के शेष पदों को भी तुम ऐसा ही जानो। इसमें अपनाए गए सभी प्रतीक अथवा बिंब तब तुम्हें अवश्य ही अपने लगेंगे जब तुम्हारा पुत्र तुम्हें मम्मी नहीं माताजी कहने लगेगा।”
हिंदीजनों के अवलोकनार्थ कविता “बंदी मन मन की कहे” :
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★ #बंदी मन मन की कहे ★
सातों मरुत प्रेमपीड़ा विरुद्ध
सरयू में नीर आज कैसे बहे
सीता में घट घटबीच लाजपट
आज कांधे धर्महल कौन धरे
कौन राजऋषि लोकहित जो वरे
सागर का जल बादल विकल
नेहदान लिया लौटाया करे
सीता में घट घटबीच लाजपट . . . . .
असत्य अविद्या मेल यहां
बिना तिलों के तेल यहां
भेड़गति को पहुंची जनता
खेल खेल में खेल यहां
अमृता ठहरी विषबेल यहां
बिकाऊ क्रेता पिच्छलग्गू नेता
कलिकाल टल जाए राजाराम करे
सीता में घट घटबीच लाजपट . . . . .
यक्ष रक्ष में भेद मिटा
धत्कर्मों से खेद मिटा
झुंड मुंड की गणना में
नट जीता श्रमस्वेद पिटा
सुघड़ लौटा पाखंड डटा
तड़ित आकाश में प्राण यमपाश में
प्रेमकारा में बंदी मन मन की कहे
सीता में घट घटबीच लाजपट . . . . .
सबदिन तेरहवीं तर्कों की
शब्दों की बगिया अर्थी अर्थों की
स्वराज का सपना कैसा सपना
पहचान हुई सब नर्कों की
युग भुगतें चूकें निमिषों की
खंडित हृदय त्रिभुवन में प्रलय
कोई अपनों की करनी किससे कहे
सीता में घट घटबीच लाजपट . . . . .
नियम पुराने और नवीन प्रथा
तेरी मेरी सब एक कथा
कौन लुटेरा यहां लुटता कौन
तथा राजा अब प्रजा यथा
अपना पथ सबको भूल गया
कौन किसका सगा मोल सबका लगा
बिनरीढ़ वही बीच बत्तीस रहे
सीता में घट घटबीच लाजपट . . . . .
अथर्व उगा वेदत्रयी उजियारे में
काजल शोभित नयना कजरारे में
इस दिन कर्मों का तोलमोल नहीं
सुख खोजें नाम इक न्यारे में
गंध फूलों की घसियारे में
हिंद अयोध्या हुआ राम जी की कृपा
मीत कौन जो कोपभवन में घुसे
सीता में घट घटबीच लाजपट . . . . .
सांस धौंकनी चलती रहे
नयना ज्योति जलती रहे
दिनकर निश्चित ही चमकेंगे
हिरदे हिरदे आस पलती रहे
सुख बरसे चहुंओर कवि कहे
हाथों को काज आँखों में लाज
अमोल गहनों से मनुजतन सजता रहे
सीता में घट घटबीच लाजपट
आज कांधे धर्महल कौन धरे . . . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२