एक बार फिर
“एक बार फिर”
वाह रे मानव
किया कार्य बहुत महान
तेरी कुत्सित ज़िद से एक बार पुनः
तपोवन बना श्मशान
बरपा है कुदरत का कहर
उत्तराखंड में फिर एक बार
प्रलय सा ज़लज़ला था आया
उजड़ गए अनगिनत घरबार
क्यों प्रकृति को छेड़ते हो इतना
क्यूँ पर्वत के सब्र का लिया इम्तिहान
कभी तो धैर्य बांध टूटेगा
इस सत्य से क्या अनभिज्ञ था इंसान ?
नहीं मानव न इतना भोला
यह उसकी थी लोभ पिपासा
चाहत ये बनूँ शासक प्रकृति का
सब कुछ हासिल की अभिलाषा
आगाह किया कई बार बुद्धजीवियों ने
चेताया अनेकों बार
देश के ज्ञानी वैज्ञानिकों ने
तथापि अनदेखी कर किया अपराध
जनमानस को दिया संत्रास
गरीब बेसहारा बेबस निर्दोष
बने काल के ग्रास
कुदरत है दाता है बहुत दयालु
दिए गए अनेक संकेत
दोहन शोषण पर भी क्षमा दान कर
पग-पग पर किया सचेत
सरकार प्रशासन या राजनेता
कौन सी आत्मा यहाँ दूध की धुली है
किसको कहें दोष किसे दें
भांग तो पूरे कुंए में ही घुली है
कैसा बसंत आया कैसा आया फागुन कैसे खेलें होली कोई बावरी बिन साजन
किस- किस के अपने चले गए
पापा बेटा या भाई
कैसे हैं अब कौन बताए रुके न रुलाई
मानवकृत विनाश है यह सारा
इंसानी है यह सारी खता
निहित स्वार्थों पूर्ति में मनुष्यता को हमने ही बता दिया धता
कहते हैं प्रकृति है मानव की सहचरी करन चले ईश्वर से बराबरी
देखो विकास की इस अंधी दौड़ में
हुई कैसी विक्षिप्तता हमसे
प्रगति की होड़ में
है यह चेतावनी की संकेत दुंदुभि
जो ईश्वर से मिलती है बारम्बार
प्रकृति को अब मत छेड़ना
सह न पाओगे इसके क्रोध का प्रहार
निर्बुद्धि अधम हो जा चैतन्य
रख ले निज पर अब तू नियंत्रण
वरना है विनाश की कगार पर
तू खुद प्रलय को भेज रहा आमंत्रण।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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