एक बार फिर
एक बार फिर
मौसम की ठंडी फुहार और क्यारी में खिले पीले फूल आज फिर मन के दरीचों से अतीत की स्मृति ताज़ा करने पर आमादा हो गए हैं। गोधूलि की बेला में फिर कोई पागल बादल झूमकर बरसने को आतुर है। बदली की ओट में छुपा चाँद एक बार फिर कॉलेज के दिनों की याद दिला रहा है। बरसों बीत गए शशांक से मिले पर आज भी यूँ लगता है जैसे वो इन पीले फूलों के बीच मेरे आस-पास मौज़ूद है।
कॉलेज में फ्रैशर्स पार्टी के दिन मेरे विनर घोषित होने पर अंत तक बजने वाली उसकी तीन तालियों की गूँज और आकर्षक, मोहिनी सूरत मेरे ज़हन में कब समा गई , कुछ पता नहीं चला। वो मुझसे एक साल सीनियर था।इसलिए अक्सर हमारी मुलाकात कैंटीन में हुआ करती थी। मेरी मृगनयनी आँखों में अपनत्व से झाँक कर शायराना अंदाज़ में जब वो कहता-
“आँखें साक़ी की जब से देखी हैं हमसे दो घूँट पी नहीं जाती ”
तो नज़रों से छू लेने वाला उसका मीठा अहसास मेरे दिल के तारों को झंकृत कर देता और मैं नाराज़गी ज़ाहिर किए बिना लजाकर मुस्कुरा देती। मुलाकात का ये सिलसिला चलता रहा।
कॉलेज के दिनों में जूही के पीले फूलों की बेल के नीचे देर तक बैठे प्यार के सपने सँजोते, गुनगुनाते हुए हमने न जाने कितने पल एक साथ गुज़ारे थे। क्लास बंक करके फिल्म देखने जाना ,मुच्छड़ के गोल-गप्पे खाना, प्यार की अनुभूति में सराबोर हाथों में हाथ लिए दूर तक निकल जाना, बादलों की ओट में छुपे चाँद को देखकर शशांक का मुझे बाहों में भरना और मेरे शरमाने पर ये गुनगुनाना-
“चाँद छुपा बादल में शरमा के मेरी जाना
सीने से लग जा तू बल खाके मेरी जाना
गुमसुम सा है, गुपचुप सा है, मदहोश है, ख़ामोश है, ये समाँ, हाँ ये समाँ कुछ और है।”
बारिश में भीगने से बचने के लिए मेरी चुन्नी में फिर मुँह छिपाना जैसे रोज़ की दिनचर्या बन गए थे।
देखते-देखते दो साल पलक झपकते निकल गए। शशांक बी.सी.ए.क्वालीफाइड करके बैंगलोर चला गया और सालभर बाद पापा के न रहने पर मैंने कई कंपनीज़ में नौकरी के लिए एप्लाई किया। हैदराबाद में जॉब लगने पर दिल की हसरतों को यादों में कैद किए, मैं माँ को लेकर यहाँ चली आई। यौवन की दहलीज़ पर खड़े हुए, मन के सूने आँगन में अतीत के पहले सावन सा गुनगुनाते हुए तुम्हें आज एक बार फिर इन पीले फूलों में महसूस कर रही हूँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर