एक फ़रिश्ता : गुलशन कुमार
एक फ़रिश्ता : गुलशन कुमार
#दिनेश एल० “जैहिंद”
मुझे मेरा कोई फरिश्ता नहीं मिला | लेकिन मैं एक ऐसे शक्स को दूर से जानता हूँ, जो फरिश्ता ही नहीं फरिश्ते से भी ऊपर था | नाम था : श्री गुलशन कुमार !
हाँ, गुलशन कुमार ! टी-सिरीज संगीत कं० के संस्थापक व फिल्म निर्माता | वे बड़े खुशनसीब, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न, दयावान, उदार व कर्मठ इंसान थे | उनका जीवन एक मामूली आदमी से एक सफल करोड़पति व्यवसायी बनने की कहानी है, जिसे सारी दुनिया अच्छी तरह जानती है |
लेकिन इस कहानी पर उस दिन पर्दा गिर गया जिस दिन कुछ सरफिरे लोगों ने सुबह-सुबह सरेआम उन्हें गोलियों से भुन दिया | हाँ, वह दिन था – 12 अगस्त 1997, मुम्बई के दक्षिणी अन्धेरी इलाके के जीतनगर में स्थित हिन्दू मन्दिर, जीतेश्वर महादेव मन्दिर के बाहर कुछ असामाजिक तत्वों ने
उनकी हत्या कर दी |
मैं उन दिनों बम्बई में रहकर फिल्मों में बतौर गीतकार खुद को स्थापित करने में लगा था | बहुत लम्बे दिनों से मेरा संघर्ष चल रहा था | मैं जगह-जगह फिल्मी ऑफिसों के आए दिन चक्कर लगाता रहता था | कभी निर्माता के पास तो कभी संगीतकारों के पास तो कभी रिकॉर्डिंग स्टूडियोज़ का तो कभी शूटिंग स्टूडियोज़ का | उसी समय मुझे पता लगा कि श्री गुलशन कुमार जी भी अपना ऑफिस अँधेरी (प०) में खोल रखे हैं | उनके पास स्ट्रगलर्स आए दिन आ-जा रहे हैं | कुछ मित्रों की सलाह पर मैं भी उनके ऑफिस में गया | उस समय संगीतकार निखल-विनय उनके संगीतकार हुआ करते थे और वही वहाँ के अधिकारिक कार्य संपादक थे | गायकों, गीतकारों व नवआगंतुकों का इंटरव्यू वही लिया करते थे | पहली बार उन्होंने मुझे भी देखा, सुना, पढ़ा | अपना विजिटिंग कार्ड व मोबाइल न० दिया | मेरे आठ- दस गीत भी फाइल करके रखे | फिर मिलते रहने को कहा और कुछ मेरे साथ भी करने का वादा कर मुझे विदा किया | फिर तो मैं अब बराबर वहाँ आने- जाने लगा | आगे चलके मैं निखिलजी के घर पर भी जाता-आता रहा और मन में एक उम्मीद पाले रखी कि एक दिन मैं फिल्मी गीतकार बन जाऊँगा |
दिन, माह, साल बीतते जा रहे थे, पर मुझे कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था | मैं मायूस हुए जा रहा था | मुझे सफलता का कोई छोर दिखाई नहीं दे रहा था | इसी उधेड़बुन में मैंने एक दिन प्रत्यक्ष श्री गुलशन जी से ही मिलने का मन बनाया और एक सुबह ऑफिस पहुँच गया | नीचे बैठे वॉचमैन से विजिटर स्लिप बनवाई और ऊपर ऑफिस की ओर चल पड़ा | दो-तीन कमरों के दरवाजे पर घूम-घूमकर देखा | कहीं कोई नहीं था और न कोई आदमी दिखाई दे रहा था | मैंने सोचा मैं बीफोर हूँ क्या ? सो मैं उदास होकर ऊपर से नीचे सीढ़ियों से आने लगा | मैं कुछ सोचते हुए सिर नीचे किए सीढियाँ उतर ही रहा था कि कुरता-पायजामे में एक शक्स ऊपर की ओर चला आ रहा
था | मैंने उस पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया | वह आदमी तीन-चार सीढ़ियाँ ऊपर जा चुका था | तभी मेरे कानों नें आवाज आई – “कौन है, किसे ढूढ़ रहा है ?” मैंने तत्क्षण अपना सिर ऊपर किया और नजरें उस शक्स पर डाली |
मैंने कुछ समझा नहीं और ना उसे पहचाना, घबराहट में जवाब दिया – “कुछ नहीं सर !” और सिर नीचे करके सीढियाँ उतर गया | गेट से बाहर निकला, कुछ सोचता रहा, काम नहीं बनने का दुख मन पर हावी हो गया | पर उसी दबाव में किसी और ऑफिस में जाने का प्रोग्राम बनाने लगा | चलते-चलते सड़क किनारे बस स्टैंड पर आकर खड़ा हो गया और उस शक्स के बारे में सोचने लगा – “वह शक्स कौन था !” तभी मेरे दिमाग में कुछ कौंध गया -“वो माय गॉड ! अरे, मुझसे कितनी बड़ी गलती हो गई ! वो तो गुलशन कुमार ही थे | मुझसे इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई | सामने खड़े फरिश्ते को कैसे पहचान नहीं पाया !”
अब तो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल हो ही चुकी थी | पुन: घुरकर वहाँ जाने का मन नहीं बना पाया | भाग्य का दोष देकर कहीं और निकल गया | दिन भर ऑफिस टू ऑफिस घूमता रहा | और रास्ते भर सिर्फ यहीं सोचता रहा कि काश, मुझसे पहचाने में भूल न हुई होती | अगर पहचान जाता तो उनके पैर पकड़ लेता और एक चांस माँग लेता | और मेरी जिंदगी बदल जाती |
मैंने अपने फरिश्ते को गँवा दिया था | और मैं ही क्यों ? उस फरिश्ते को 1997 के बाद
हर स्ट्रगलर्स गँवा चुके थे | भगवान उनकी महान आत्मा को चिरशांति प्रदान करे !!!
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दिनेश एल० “जैहिंद”
28. 01. 2019