एक पुरानी नज़्म पढ़ी आज—
एक पुरानी नज़्म पढ़ी आज,
अपनी ही नज़्म
अपने ही अश’आर।
—
सोचता रहा घड़ी भर
कि,
कितना प्रेम किया होगा,
तुमसे मैंने,
तुम्हें यूं ही तो
पीली सरसों की चादर सा
न कहा होगा
तुम्हें यूं ही तो
चाँदनी रातों में
निस्पर्श निहारा होगा।
—
आज भी,
जब तुम याद आती हो
हिन्दी-उर्दू सी साथ महकती हो,
जैसे मेरी कलम
एकल ज़बान में लिख नहीं सकती
कोई कविता
अकेले कुछ कह नहीं सकती।
इधर देखा कि,
कुछ सफ़ेद हो आए हैं
गेसू तुम्हारे,
कुछ कम बोलने लगी हो
शोख़ियाँ कम हुई हैं नज़रों में,
होंठ बिना रंगे
ज़्यादा सुर्ख़ लगने लगे हैं
मुस्कान जैसे,
हसीं अफ़साने कहने को आतुर हैं।
एक पुरानी नज़्म पढ़ी आज….
-श्रीधर