एक नूर से सब जग उपज्या
एक नूर से, सब जग उपज्या
महाराष्ट्र के नागपुर शहर के रेलवे स्टेशन से “गोंडवाना एक्सप्रैस” दोपहर के ठीक एक बजकर चालीस मिनट पर, अपने निर्धारित समय पर, दिल्ली जाने के लिए छूटी| जिसमें टोहाना के भी बारह अध्यापक सवार थे| जो एक सप्ताह का शैक्षिक भ्रमण करके, अपने घर के लिए लौट रहे थे| सबको अपने घर पहुंचने की जल्दी थी| सबकी सीटें आरक्षित थी| सबने अपने-अपने बैग, “जो सामान से ठूंस-ठूंस कर भरे हुए थे” सीटों के नीचे सरकाए|
सभी अध्यापक भ्रमण से संबंधित ढेरों-ढेर स्मृतियां अपने एंड्रॉयड मोबाइल फोन में व अपने मन-मस्तिष्क में संजो कर, अपने साथ ले जा रहे थे| जिनके मोबाइल की बैट्री अलाउ कर रही थी, वो अपने भ्रमण की फोटो सोशल साइटस के हवाले भी कर रहे थे|
इन अध्यापकों में सुभाष चन्द्र नामक बातूनी अध्यापक भी था| जिसकी विशेषता है कि वो जब बाते करने लगते हैं तो जरूरी से जरूरी कार्य भी भूल जाते हैं| सुभाष ने भी अपना साजो-सामान सीट के नीचे सुशोभित किया| उनका एक छोटा बैग सीट पर, बतौर तकिया शोभा बढ़ा रहा था|
दोपहर का समय था| धूप बहुत तेज थी| हालांकि उत्तर भारत बुरी तरह धुंध व ठंड की चपेट में था, जो ऐसी धूप के लिए तरस रहा था| उधर महाराष्ट्र में जनवरी में भी पसीने आ रहे थे| महाराष्ट्र का नागपुर इतना गर्म था, जबकि हरियाणा शीतलहर झेल रहा था| यह विविधता भी सबको रोमांचित कर रही थी|
समय का पहिया चलता रहा| गाड़ी आगे बढ़ती रही| सभी अध्यापक मौज-मस्ती कर रहे थे| हंसी-मजाक यौवन पर था| नहले पर दहला मारने का अवसर कोई नहीं छोड़ रहा था| सफर का और समय का पता ही नहीं चल रहा था| सुभाष की बगल वाली सीट पर एक सरदार जी ने अपना सामान जचा रखा था| उससे ऊपर वाली बर्थ पर सरदार जी की खूबसूरत बीवी लेटी हुई थी| उनके साथ दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी थे| लड़की को सरदार दंपत्ती निक्की और लड़के को काकू कह कर बुला रहे थे| काकू के सिर पर केश थे| जिन्हें सलीके से बांध कर जूड़ा बनाया हुआ था| जैसा कि आमतौर पर सिख परिवारों के बच्चों का बनाया जाता है| सरदार जी व उनकी पत्नी बड़े हंसमुख व मिलनसार व्यक्तित्व के धनी थे|
अचानक काकू रोने लगा| सरदार दंपत्ती ने काकू को मनाने का हर संभव प्रयास किया| परन्तु काकू ने चुप होने का नाम भी नहीं लिया| सुभाष अपनी सीट पर बैठे चना दाल खा रहे थे| उसने थोड़ी दाल रो रहे काकू को देनी चाही| काकू ने रोते-रोते ही दाल लेने से मना कर दिया|
सुभाष ने काकू के पिता से पूछा, “सिंह साहब काकू क्यों रो रहा है?”
सरदार जी ने बताया, “काकू रोटी मांग रहा है|”
सुभाष को मजाक सूझा और कहने लगा कि रोटी के दर्शन हुए तो एक सप्ताह हो गया| सभी अध्यापक और सरदार दंपत्ती ठहाका मार कर हंसे| क्योंकि सभी को एक सप्ताह हो गया था, रोटी खाए| सब के सब रोटी के लिए तरस रहे थे| नागपुर में व सफर में नॉन व दक्षिण भारतीय भोजन खा-खा कर ऊब चुके थे| सबको हंसता देखकर, काकू चुप हो गया| काकू नहीं समझ पा रहा था कि सभी क्यों हंस रहे हैं| शायद वह समझने का प्रयास कर रहा था| इसी प्रयास में उसने रोना बंद कर दिया| सुभाष ने अपनी सीट के नीचे से, गत्ते की पेटी से एक संतरा निकाल कर काकू को दे दिया| काकू संतरे का छिलका उतार कर, संतरा खाने लगा|
अध्यापक एक पेटी संतरे सफर में खाने के लिए लाए थे| लाएं भी क्यों नहीं, नागपुरी संतरा विश्व विख्यात है| नागपुर का नाम वहाँ के संतरों के कारण ही विख्यात है| यहाँ के संतरों में बीज नहीं होता| हां एक बात और खास रही, यहाँ संतरे तौल कर नहीं, गिनकर ‘दर्जन’ के हिसाब से बेचते हैं और केला तौलकर बेचते हैं|
अब काकू संतरा खाते-खाते सुभाष को देखकर मुस्करा रहा था| काकू की सुभाष के साथ दोस्ती हो गई| काकू अपने पापा के पास तो कभी सुभाष के पास आकर खेलने लगता| काकू के साथ-साथ निक्की भी सुभाष के साथ घुल-मिल गई| गाड़ी चलती रही, मुख्य-मुख्य शहरों में रुकती रही| छोटे शहरों व गांवों को उपेक्षित करती रही| लगा जैसे की रेलगाड़ी भी बड़े शहरों और छोटे शहरों व गांवों में भेदभाव कर रही है| सामान बेचने वाले आते रहे, जाते रहे| गौंडवाना एक्सप्रेस दौड़ती रही| आगे बढ़ती रही| सूरज भी अगले दिन निकलने के लिए, दक्षिण दिशा में जा कर छुप गया| रात ने अपनी उपस्थिति दर्ज यूं करवा दी| जैसे अस्पताल में स्टाफ अपनी पाली बदलता है|
सभी ने अपने-अपने कम्बल-खेश निकाले और शर्दी से बचने का इंतजाम करने लगे| क्योंकि रात का सफर उत्तरी भारत का के ठंडे इलाके से होते हुए, तय करना था| रात को ठंड ने बड़ा कहर बरपाया| एक स्टेशन पर पावर फेल होने के कारण गाड़ी लम्बे समय तक खड़ी रही| इसलिए रात्री का सफर अपेक्षा के अनुरूप तय नहीं हुआ|
सुबह उठकर काकू और निक्की ने सुभाष सहित सभी अध्यापकों को “सत श्री अकाल” बुलाया| सभी ने ब्रेकफास्ट के लिए अपना-अपना आर्डर नोट करवाया| कुछ ही समय में आर्डर मुताबिक़ सभी का ब्रेकफास्ट आ पहुंचा| सभी ने चाय नाश्ता लिया| बच्चों ने फिर से मस्ती करनी शुरु कर दी| बच्चे भोली व तौतली बातों से सबका मन मोह रहे थे| बच्चों में कमाल का अपनत्व होता है| ये उसी के हो जाते हैं, जो इनसे प्यार से बोलता है| ये अपना-पराया, छूत-अछूत, छोटा-बड़ा, धर्म-मजहब के दायरों से बाहर होते हैं|
ऐसे ही भाव इन बच्चों के थे| काकू सुभाष के साथ ऐसे घुल-मिल गया जैसे वर्षों की जान-पहचान हो| काकू को कुछ नहीं लेना-देना था इन बातों से कि उनकी भाषा, संस्कृति, वेश-भूषा, रहन-सहन व धर्म अलग है| बच्चों की संस्कृति तो सिर्फ और सिर्फ स्नेह है| जो कोई उनसे स्नेह करे तो, वे उनसे कई गुणा अधिक स्नेह करते हैं|
दोपहर के दो बजने वाले थे| रेलगाड़ी नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर आ कर रुकी| सभी ने अपना-अपना सामान समेटा और उतार कर प्लेटफार्म पर रख दिया| सभी अध्यापक सामान उतारने में सरदार दंपती की मदद करने लगे| काकू को सुभाष ने गोदी में ले रखा था| सभी अध्यापकों से सरदार जी ने हाथ मिलाया| अपने गन्तव्य की ओर जाने के लिए, सुभाष की गोदी से काकू को लेने लगे| लेकिन ये क्या? काकू सुभाष के साथ चिपक गया और पंजाबी में कहने लगा, “मैं अंकल नाल जाना अ, जां फेर अंकल नू नाल ले चलो|”
सभी अध्यापक ठहाके मार-मार कर हंस रहे थे| सरदार जी ने काकू को जबरन सुभाष की गोदी से लिया| काकू छटपटा रहा था, चिल्ला रहा था| सभी अध्यापक सरदार जी से विदा होकर चल पड़े| लेकिन काकू अब भी अपने पापा की गोदी में छटपटा रहा था| छोड़ने के लिए कह रहा था| अंकल के पास जाने की कह रहा था| काकू का निश्छल प्रेम देख कर सभी गदगद थे| तभी किसी का फोन बजा रिंगटोन थी|
अव्वल अल्लाह नूर उपाया
कुदरत के सब बंदे
एक नूर तों सब जग उफज्या
कौन भले, कौन मंदे
-विनोद सिल्ला©