एक नदी की जीवन यात्रा
जब समंदर में मिल जाऊंगी
तभी अपनी मंजिल पाऊंगी
थक गई हूं सफर से अब मैं
वहीं अब तो आराम पाऊंगी।।
दिख रहा सामने समंदर मुझे
अब मेरी धड़कन बढ़ रही है
जानती हूं मिट जायेगा अस्तित्व मेरा
फिर भी मिलने की प्यास बढ़ रही है।।
पहाड़ों की ठंड को झेला है मैंने
और कईयों की प्यास बुझाई है
तब जाकर कटा है ये सफर मेरा
जिसने आज ये मंजिल दिखाई है।।
चली थी मैं बर्फ से लदी चोटियों से
एक छोटी सी धारा के रूप में
बढ़ती रही निरंतर मंजिल की ओर
कभी नहीं थकी मैं तेज़ धूप में।।
चलती रही निरंतर, रात हो या
फिर दिन, मैं कभी नहीं रुकी
पहाड़ों की मिट्टी उठाते हुए भी
चलती रही, मैं कभी नहीं थकी।।
रास्ते में कहीं पूजा हुई मेरी
कहीं करते लोग पवित्र स्नान
कहते है मिट जायेंगे पाप उनके
करके मेरे पवित्र जल से स्नान।।
मैं समा गई हूं आज समुद्र में
खो गई है अब पहचान मेरी
है इंतजार फिर से जाने का
उस पहाड़ पर जो है मां मेरी।।