एक दिया उम्मीदों का
शीर्षक – एक दिया उम्मीदों का
टूट रहा है कोई
है ये वही जिसका
कोई नहीं है अभी
धीरे धीरे से वो
टूट रहा है हर दम
मरा हुआ है लेकिन
अभी भी जी रहा है
हाल चाल पूछने कोई
नहीं आ रहा है
नींद है आंखों में लेकिन
दिल रो रहा है
आंखें भरी हुई हैं
होंठ सिसक रहे हैं
तन कांप रहा है
कोई रो रहा है
उसके जीवन में
रौशनी तो है लेकिन
जीवन अंधेरे में है
वो अकेला ख़ुद से
सवाल पूछ रहा है
उसके होने का क्या अर्थ है?
वही अर्थ ढूंढ रहा है
क्यों है वो इस बेगानी दुनियां में
जहां उसका कोई एक नहीं है
वो धीरे धीरे मर रहा था तभी
उसकी नजरें एक जलते हुए
दीपक पर आ टिकीं
उस रौशनी को देखकर
उसके मन में खयाल आया
अरे यह दीपक तो अकेला है
अकेला ही जल रहा है
अकेला है लेकिन इसकी रौशनी ने
पूरे कमरे को प्रकाश से भर रखा है
खुद जल रहा है बिना शिकायत किए
इस अन्धकार मय कमरे में एक दिया ही है
जो प्रकाश बिखेरे हुए है
अगर वो दिया बुझ जाए
यह सोचकर की वो अकेला है
तब क्या इस कमरे पर
रौशनी होगी?? नहीं! कभी नहीं
उसी तरह तो मैं भी हूं
अकेला हूं लेकिन
मैं भी दिए की भांति जल सकता हूं
मैं भी प्रकाश बिखेर सकता हूं
मैं अकेला हूं तो क्या हुआ
सबकुछ खतम हो गया तो क्या हुआ
मैं जी तो रहा हूं ना, मैं भी जी सकता हूं ना
फिर से उठूंगा
फिर से चलूंगा
फिर से एक कोशिश मेरे लिए या मेरे जैसे
उन अनेकों के लिए करूंगा
जिसका कोई नहीं है
मैं उन बेसहारों का सहारा बनूंगा
हां मैं अकेला हूं लेकिन तभी तक
जबतक में मानता रहूंगा
मैं अकेला चलूंगा
एक दिया उम्मीदों का बनूंगा
मैं दिन रात जलूंगा
उन अंधेरों के जीवन का
प्रकाश बनूंगा
मैं अकेला हूं अकेला ही चलूंगा
_ सोनम पुनीत दुबे