एक दिन गुजर ही जाना है।।
पैरों की बिवाइयां क्या देखूं?
सफर लम्बे में तन्हाइयां क्या देखूं?
रिस रिस कर घाव चलें संग,
मुड़ कर उनकी परछाइयां क्या देखूं?
जब हर सितम से टकराना है।
एक दिन गुजर ही जाना है।।
मुस्कान लबों पर क्यों छोड़ूं?
तरणी दलदल में क्यों मोडू़्ं?
जो रस्में दी है जिम्मेदारी ने,
पल भर के सुकून से क्यों तोड़ूं?
हर भार कंधे उठाना है।
एक दिन गुजर ही जाना है।।
क्यों अपनों के कोई घाव करूं?
ले छल-कपट क्यों दाव करूं?
जिस पथ में कोई बाधा नहीं,
उस पथ का मांझी क्यों चुनाव करूं?
अपने बल से राह बनाना है।
एक दिन गुजर ही जाना है।।
क्यों पराजय को स्वीकार करूं?
क्यों अपयश का श्रृंगार करूं?
जब सामर्थ्य है बाहुबल में तो,
क्यों कायर-सा व्यवहार करूं?
तू है क्या? जग को दिखाना है।
एक दिन गुजर ही जाना है।।
रोहताश वर्मा ‘मुसाफिर’