* एक थी वो हसी *
एक चांद था, एक मैं
और
एक थी वो हसी
क्या गम था क्या खुशी
सब बांट लेते थे हम
मगर आज
चांद में लग चुका है दाग़
वो भी न रही पहले जैसी
हम भी न रहे अब वैसे
क्या मैं, क्या वो और क्या चांद
ये मेरे सिवाय
ओर जान सकेगा कौन ?
एक चांद था, एक मैं
और एक थी वो हसी
मधुप बैरागी