एक तेरे दर से ही बस आस लगा बैठा हूं।
एक ग़ज़ल देखिए।
मैं हरेक दर्द अपने दिल में छुपा बैठा हूं।
तेरे तस्वीर को सीने से लगा बैठा हूं।
अब तो आ जाओ मोरनी दिल के उपवन में।
अब तो आंखों से भी बरसात करा बैठा हूं।
मुझको कोई गिला नहीं है इन हवाओं से।
जल चुका हूं चिराग़ मैं तो थका बैठा हूं।
जिंदगी अब तो लग रही बेरहम मुझको।
मौत की आस अपने दिल में लिया बैठा हूं।
सब्र बाकी न रहा अब तो मुझे ऐ मालिक।
एक तेरे दर से ही बस आस लगा बैठा हूं।
बात मुझसे न करो मुझको समझकर शायर।
लफ्ज़ के साथ कलेजे को सजा बैठा हूं।
©®दीपक झा “रुद्रा”