एक तुम..
एक तुम ही तो थीं
सुन कर जिसकी आवाज़
हो दर्द कितना भी
मुस्कुरा देते थे हम,
साँसों की गरमी तुम्हारी
पिघला देती थी
मेरे करीब छायी मायूसी को
और, मैं फ़िर जी उठता था
कुछ मासूम ख्वाहिशों के साथ.
अब तुम नहीं
ख्वाहिशें मेरी मुर्झा गई है
किताब में रखे फ़ूल की तरह,
ख़ामोश तन्हाई बन गई है
हमसफर मेरी
सुनसान राहों में
टूटी हुई हसरत की तरह.
हिमांशु Kulshreshtha