एक तुम ही थे हमारे किस सपन की बात करता।
एक तुम ही थे हमारे
किस सपन की बात करता।
नेत्र के अंधेर नगरी में मैं कैसे रश्मि भरता।
बाक़ी कुछ मैं क्या बताऊं
रोऊं या चिखूं चिल्लाऊं
मन में कौतुलह मची है
त्रासदी का गीत गाउं।
आहें भरकर जी रहा हूं,आंसुओं को पी रहा हूं।
जीते जी मरने से अच्छा मृत्यु से इक बार मरता।
मैंने तुमको ही चुना
जीवन की दरिया पार करने…
तुमको अपनी कश्ती करने
स्वयं को पतवार करने।
किंतु कैसे यह सुनामी आ गया बोलो अचानक….
कैसे बावस्ता निकलता कैसे सब तैयार करता।
दिन दहकते हैं मेरे
सूरज की पावन रोशनी में…
शाम भी सुलगी हुई है
चांद की इस चांदनी में।
जगनुओं के ही सहारे ,रात के सहमें पलों में…
कैसे इस वीरान वन में ,मैं अकेला ही ठहरता।
अंजुलीभर रेत को भी
मैं तेरी तस्वीर करता ….
तुम जो कहती एक पल में
बदली सी तकदीर करता।
तुम जो कहती तो स्वयं को तुझपे अर्पित कर ही देता।
काश! तेरी कल्पना से मन की रिक्ति को मैं भरता।
दीपक झा रुद्रा