एक चोर की कथा
वह एक चोर था।चोरी ही उसकी वृत्ति थी और उसी से वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता था यह उसके परिवार वाले भी जानते थे। चोर होने के साथ साथ वह जुआरी और वैश्यागामी भी था।
मुहल्ले में एक ब्राह्मण को किसी ने एक गाय दान में दी थी। गाय बड़ी सुन्दर और सुडौल थी। जब चोर ने ब्राह्मण के खूँटे से बँधी उस गाय को देखा तो उसका मन डोल गया उसने सोचा कि वह इस गाय को
चुरा लेगा और बेच देगा। अवसर पाकर उसने उस गाय को चुरा लिया और एक कसाईं को बेच दिया। कसाई ने उस हृष्ट पुष्ट गाय का अच्छा मूल्य दिया था जिसके कारण वह बहुत खुश था। उस पाप के धन से उसने ऐश करने की सोची। अतः वह सायँ को प्रसन्न मन अपनी परिचित वैश्या के यहां पहुंच गया। वैश्या ने उसे अत्यन्त खुश देख कर उसकी प्रसन्नता का कारण पूँछा तो उसने उसे ब्राह्मण की गाय चोरी करके कसाई को बेचने बात बताई तो वह भड़क उठी और क्रोधित होकर उसे धिक्कारते कहा, मैं यह जानती हूँ की तुम एक चोर हो लेकिन मैंने तुम्हें सदा अंगीकार किया है।
आज तुमने ब्राह्मण की गाय चोरी करके उसे कसाई को बेच कर जघन्य अपराध किया है। मैं न तो तुम्हारे इस धन को स्वीकार करूँगी और न अपने शरीर से हाथ लगाने दूँगी। तुम तो महापातकी हो। फ़ौरन मेरे कोठे से चले जाओ। वैश्या की भर्तस्ना का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह अपने उसी रंग में अपनी पत्नी के पास पहुँच गया।
पत्नी ने उसे अति प्रसन्न देख कर उसका मुस्करा कर स्वागत किया तथा उसकी प्रसन्नता का कारण पूँछा। उसको कोई अपराध बोध नहीं था अतः उसने प्रसन्नता पूर्वक गाय चुराने व उसे कसाई को बेचने का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया। पूर्ण वृत्तांत सुनकर पत्नी छिटक कर उससे दूर खड़ी हो गई और बोली, ‘स्वामी मैं जानती हूँ कि आप चोर हैं और चोरी के धन से ही हमारी उदर पूर्ति करते हैं। मैंने इस सत्य को स्वीकार कर लिया है कि मैं एक चोर की पत्नी हूँ। मैने कभी आपका तिरस्कार नहीं किया लेकिन आज आपने ब्राह्मण की गाय चुराकर उसे कटने के लिए कसाई को बेच कर महापाप किया है। मैं आपको तब तक स्वीकार नहीं कर सकती जब तक आप इस महापाप का प्रायश्चित नहीं कर लेते।’ पत्नी की रुक्षता से वह बड़ा दुखी होगया और घर से बाहर जाने लगा।
घर की पौरी में उसे उसकी माँ मिल गई। माँ ने उसे दुखी देख कर पूँछ लिया कि वह दुखी क्यों है और कहाँ जा रहा है? माँ के पूँछने पर उसने माँ को भी पूरी बात बता दी। सुन कर माँ बोली, ‘बेटा हम तेरे चोरी से कमाये धन के उपभोग के अपराधी और पापी जरूर हैं लेकिन गऊ चोरी और उसकी हत्या के निमित्त कसाई को बेचने से प्राप्त धन के सहभागी नहीं बन सकेंगे। अब बस बहुत हो गया। तू तुरंत घर छोड़ कर चला जा और जैसा बहू ने कहा है गऊ चोरी और उसकी हत्या के लिये कसाई को बेचने के पाप से मुक्त हो कर ही घर आना।’ यह कह कर माँ ने घर का दरवाजा बंद कर लिया।
हर ओर से दुत्कारे जाने के कारण उसे अपने अपराध की गुरुता का आभास होने लगा था। वह अत्यंत दुखी हो कर एक ओर को चल दिया और कुछ दूर जा कर सड़क के किनारे बैठ गया। वह बहुत देर तक ऐसे ही बैठा रहा। अचानक उसने देखा कि एक गाय सड़क पर दौड़ती आ रही थी और वह एक ऒर को मुड़ गई। उसने देखा वह वही गाय थी जिसको उसने कसाई को बेचा था। गाय को जीवित देख कर उसकी आँखों में चमक आ गई और वह खुशी से झूम उठा।उसका अपराध बोध कम हो गया। उस गाय के पीछा करते हुए एक व्यक्ति वहाँ पर आया। अँधेरे के कारण वह व्यक्ति उसे नहीं पहचान पाया। वह वही
कसाई था जिसको उसने गाय बेचीं थी।उसने उससे पूँछा क्या इधर कोई गाय आती हुई देखी थी। उसने विपरीत दिशा की ओर इंगित करके उस कसाई को भ्रमित कर दिया।
उस चोर को अपने झूँठ बोलने पर बड़ा संतोष हुआ। उसने सोचा अब गाय कसाई को नहीं मिल पायेगी और उसके प्राण बच जायेंगे। अब तक वह अपराध की भावना से पूर्ण मुक्त हो गया था। वह खुशी-खुशी अपने घर की ओर दौड़ पड़ा और दरवाजा खट खटा दिया। दरवाजा खुलते ही उसने हाँफते हुए माँ और पत्नी को पूरी बात बता दी। माँ ने कहा, ‘ बेटा पहले जो तूने गाय चुरा कर कसाई को बेची थी वह निश्चय ही घोर पाप था लेकिन अब जो तूने झूँठ बोल कर गाय की जान बचाई है बड़े पूण्य का काम किया है।’
कोई घड़ी भर बाद खटखटाने पर जब दरवाजा खोला तो सबने गाय को खड़ा देखा।पूरा परिवार बड़ा खुश हुआ। माँ ने हाथ जोड़ कर बेटे के अपराध के लिए गाय से क्षमा माँगी तथा पत्नी ने हल्दी का तिलक लगा कर पूजन किया तथा आटे के लोआ खिलाये। उन्हें लगा कि गाय झूँठ बोल कर उसकी जान बचाने के लिये कृतज्ञता प्रकट कर रही थी तथा कह रही थी कि इसका बदला वह समय आने पर चुकायेगी
(भारतीय मिथक के अनुसार इह लोक में अपना समय पूरा करने के बाद जब उस चोर का सूक्ष्म शरीर वैतरणी नदी के तट पर पहुँचा तो वैतरणी की विभीषिका देख कर घबड़ा गया। एक गाय उस सूक्ष्म
शरीर के पास आई और अपनी पूँछ पकड़ने के लिए उसे प्रेरित किया। उसने गाय की पूँछ कस कर पकड़ ली और उसने उसे वैतरणी पार करा कर अपना वचन पूरा किया)।
जयन्ती प्रसाद शर्मा, दादू ।