एक चुप्पी
कहने को तो बहुत कुछ है मगर-
हम कुछ नहीं कहते
कहें तो कैसे कहें, वो –
सुनने को ही नहिं आतुर ।
क्यों सुने ? औ’ कैसे सुने ।
वो! मेरी ही बात
चुप्पी साधे सोचती रहती,
यही दिन औ’ रात ।
मैं वो कोयल नहीं, जो-
कूक कर आम में घोलती मिठास ।
मैं वह वीणा भी नहीं, जो –
झंकृत हो ,छेड देती सुरीला राग
मैं वो चकवी भी नहीं, जो –
चाँदनी रात में चकवे का करती इन्तज़ार ।
मेरे शब्दों में वो जादू भी नहीं,
जो – बुन मेरे शब्द जाल ।
कटु सत्य कहने को भी –
मैं, रहती सदा लाचार ।
फिर भला कोई, मुझे –
क्यों सुनने को रहे आतुर ?
बस!
बस, इसीलिए हमेशा –
गुनगुनाती हूं होकर बेबस
कहने को तो बहुत कुछ है मगर,
एक चुप्प सौ सुख-
कहावत?
होंठों पर लगा देती लगाम।
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