एक घर।
सपनों का घर, जिसे हकीकत में देखना चाहता हूँ।
एक सुन्दर, मजबूत घर,
जिसमें निर्जीव ईंटों को नहीं,
बल्कि छोटी-छोटी जीवन्त इच्छाओं, तमन्नाओं, जरूरतों को जोड़ने का क्रम अथक, अनवरत चले।
एक घर – जिसमें पानी की जगह
खुशियों के बेदाग आँसू
मिट्टी – गारे को भिगोते हों,
जिनकी मासूम बूँदों में
सुन्दर भविष्य की समग्र सम्भावनाएँ
प्रखरता से बिंबित, मुखरित होती हों।
एक घर-जिसकी अटल बुनियाद कठोर सीमेंट
से नहीं,अपितु दृढ़ विश्वास की एक मोटी,
अभेद्य चादर से परिवेष्टित हो, जहाँ अविश्वास, आरोपों के छींटे नींव तक पहुँचने के पहले ही
समाधान की खिड़कियों से निकलकर
अनन्त आकाश में विलीन हो जाते हों।
एक घर – जिसकी छत में लोहे की जगह
संवादों, मधुर-सम्बन्धों की अटूटता और
परिपक्वता का क्लेश-रोधक सरिया लगा हो,
जिस पर घर-समाज के कुत्सित विचारों
की आक्रामकता, असहिष्णुता का रंचमात्र भी प्रभाव न पड़े ।
एक घर- जिसके वात्सल्यपूर्ण आँगन में
तुलसी का एक पावन पौधा लहलहाता हो,
जिसकी जड़ें धरती की चौड़ी छाती पर
प्रेम, सामंजस्य, सहअस्तित्व के अमूल्य
भावों को उकेरती हुईं, असीम पाताल में
विलुप्त हो जाती हों।
यह खूबसूरत इमारत मैं उन बेटियों को दूँ
जिन्हें ससुराल में महल नहीं, घर चाहिए,
जिन्हें परिवार का प्यार, ममता का पारावार,
अपना वर्तमान और भविष्य चाहिए,
उस घर के कोने-कोने में रोदन नहीं,हर्ष होगा,
उत्पीड़न नहीं, उत्कर्ष होगा।
अनिल मिश्र प्रहरी।