#एक गुनाह#
बात जब उसूलों की हो तो
कोई अपनी मर्जी चलाए कैसे?
मुस्कान झूठी और लफ्ज़ किताबी हों तो
कोई किसी शख़्स अपना बनाए कैसे?
ख्याल और जज़्बात बेमानी हो जहां
जिंदगी के फासले कोई तय करे कैसे?
चलो, इक गुनाह फिर सही माधवी,
अधूरी दास्तान मुहब्बत की लिखी जाए।