एक ग़ज़ल :-रूबरू खुद से हो जाए
रूबरू खुद से हो जाए ,सबके नहीं है नसीब में
उम्र का जारी सफ़र, पर मंजिल नहीं नसीब में..
गर्दिशों ने दी है दस्तक तो सुकून कहाँ नसीब में
मुद्दत हुई मुस्कुराहटों को,गम ही मिला नसीब में..
अब संभाले क्या थमेगी जो आंधियां है नसीब में
ये जिंदगी भी अजीब हैं, खिंचती लकीरें नसीब में..
चुभ जाती है अनकही बातें भी महफिल में कभी
जैसे फूल चुभता है यदि, जख्म ताजा है नसीब में..
आरजू दिल की भी सुनिए, हो फ़रिश्ता नसीब में
इश़्क बन जाए इबादत,चाहत हो ऐसी नसीब में..
जुस्तजू करते रहे हम, वो ख़ूब-तर कहाँ नसीब में
अब ठहरती है देखिए जाकर नज़र कहाँ नसीब में..
फासले दरमियाँ दिलों के, तो दूरियाँ ही नसीब में
इत्तफाक से मिले थे कभी,वो था ही नहीं नसीब में..
बस आइना है रूबरू मन , झाँक ले तू उसमें खुदा
देख पाते हम उन्हें भी,पर वो चश्म नहीं है नसीब में..
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १५/१२/२०२४ ,
मार्गशीर्ष,शुक्ल पक्ष,पूर्णिमा ,रविवार
विक्रम संवत २०८१
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