एक ग़ज़ल यह भी
वो दो थे मैं अकेला रह गया
ये जो रायता था फैला रह गया
एक अरसे से उसकी जुबाँ ख़ामोश है
उसकी यादों का बस रेला रह गया
मंजिल का मिलना तय था उसे
रफ़्तार के आगे मैं थकेला रह गया
बटोरने चला था मैं रेवड़ियाँ
हाथ में मेरे खाली थैला रह गया
उसने कहा था हर फूल चुन लाना
गजरे के गुच्छे में फूल बेला रह गया
घर से चुराकर ले गया था दौलत
लौट आया जब पास में ना धेला रह गया
दीवानगी के आलम में पागल हुआ वो
नादान इश्क़ में नवेला रह गया
दिखे ही नहीं पलकों पर ठहरे आँसू उसे
कम्बख़्त उनका रंग भी तो पनेला रह गया
राम नाम की नित फेरूँ माला
मन में फिर भी मैला रह गया
प्रेम से बुलाने पर कौन जाना नहीं चाहता
खुद के घर में ही किंतु झमेला रह गया
@ भवानी सिंह “भूधर”
बड़नगर जयपुर