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24 Feb 2024 · 1 min read

एक ग़ज़ल यह भी

वो दो थे मैं अकेला रह गया
ये जो रायता था फैला रह गया

एक अरसे से उसकी जुबाँ ख़ामोश है
उसकी यादों का बस रेला रह गया

मंजिल का मिलना तय था उसे
रफ़्तार के आगे मैं थकेला रह गया

बटोरने चला था मैं रेवड़ियाँ
हाथ में मेरे खाली थैला रह गया

उसने कहा था हर फूल चुन लाना
गजरे के गुच्छे में फूल बेला रह गया

घर से चुराकर ले गया था दौलत
लौट आया जब पास में ना धेला रह गया

दीवानगी के आलम में पागल हुआ वो
नादान इश्क़ में नवेला रह गया

दिखे ही नहीं पलकों पर ठहरे आँसू उसे
कम्बख़्त उनका रंग भी तो पनेला रह गया

राम नाम की नित फेरूँ माला
मन में फिर भी मैला रह गया

प्रेम से बुलाने पर कौन जाना नहीं चाहता
खुद के घर में ही किंतु झमेला रह गया

@ भवानी सिंह “भूधर”
बड़नगर जयपुर

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