*एक ग़ज़ल* :- ख़्वाब, फ़ुर्सत और इश़्क
एक ग़ज़ल :-
ख़्वाब, फ़ुर्सत और इश़्क
मैंने देखा नहीं है ख़्वाबों को,
कभी हँसते हुए,
मैंने देखा है ख़्वाबों को,
ख़्वाब से ही मरते हुए,
तन्हाई में होता है जो,
साथ मिलने का ख़्वाब,
वो ख़्वाब तड़पता है फिर,
बिछड़ जाने के लिए।
मैंने देखा नहीं है..
मैंने देखा नहीं फ़ुर्सत को कभी,
सुकून से जीते हुए,
मैंने देखा है फ़ुर्सत को तो,
फ़ुर्सत से ही उलझते हुए,
दिल ये कहता है फ़ुर्सत के दो पल,
मिल जाए तो अच्छा,
फ़ुर्सत कहता है,चुपचाप चले जाओ,
मशरूफ़ होने के लिए
मैंने देखा नहीं है..
मैंने देखा नहीं है इश्क को,
कभी मचलते हुए,
मैंने देखा है इश्क को तो,
इश्क से ही दहलते हुए,
इश्क होता नहीं इस जहां में,
इतनी भी हसीं,
इश्क कहता है कि तनफ्फुर है,
अब साथ रहते हुए।
मैंने देखा नहीं है…
Disclaimer :- ये ग़जल आम आदमी के
जिंदगी से अलग हटकर आधुनिक
जीवन शैली एवं
बालीवुड की जीवनशैली के मद्देनजर
लिखी गई रचना है।
इस अर्थ में देखेंगे तो यथार्थ में दिखेगा।
मौलिक एवम स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २९/०९/२०२४ ,
आश्विन कृष्ण पक्ष,द्वादशी,रविवार
विक्रम संवत २०८१
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