एक गरीबी
एक गरीबी
बहुत दिनों में मिली मुझे वो
तब और अब में कुछ अंतर था
पहले उसको देखा मैंने
फुटपाथ पर पड़ी हुई थी
मानो कोई लाश के जैसे
बिना चिता के जली हुई थी
पास पड़ी थी सूखी रोटी
टूटी चप्पल , चिथड़ा धोती
एक गरीबी नाम था उसका
नहीं ठिकाना कोई जिसका
पता नहीं कब आई जग में
क्यों और कैसे ?
कब और किससे ?
यही जिन्दगी पाई उसने
लँगड़ी , लूली , कानी , अंधी
कुछ तो उसे भगवान बनाता
कुछ तो देता , जिसको लेकर
उसका तन आराम तो पाता
कमा भी लेती , खा भी लेती
जीवन का संग्राम तो जाता
मगर !!!!
आज तो बात नई है
उसकी सूरत से लगता है
जैसे कोई वारदात हुई है
फुटपाथ से बंगला पाना
रोटी को ही लात जमाना
मालूम चला तो पता चल गया
कैसे उसका भाग्य खुल गया
बन्द तिजोरी के तालों का
कैसे उस पर राज खुल गया
बनी किसी का , मय का प्याला
किसी की भूख , किसी का निवाला
मिला उसे जब काम ये दोहरा
चला गई वो — खुद का मोहरा
आज उसी कमजोर बदन पर
जिस पर थी वो फटी सी धोती
सजे हुए कितने ही सुन्दर ,
कितने मँहगे सभी वस्त्र हैं
मगर आत्मा तो निवस्त्र है ।।।।
सीमा वर्मा