एक कुण्डलिया छंद
वाह-वाह की भूख भी,होती बड़ी विचित्र।
मगर कभी कहते नहीं,जाने क्यों निज मित्र।।
जाने क्यों निज मित्र,दिखाते मुझे अँगूठा।
देते उसका साथ,जो दिल से पक्का-झूठा।।
कह सतीश कविराय,हुई कम उम्र चाह की।
नहीं देखता राह,ह्रदय निज वाह-वाह की।।
*सतीश तिवारी ‘सरस’,नरसिंहपुर