एक अनमोल उत्सव…
फ़ोन की घण्टी बजी तो मैं हड़बड़ा कर इस डर से उठा कि शायद बॉस का फ़ोन होगा। देखा तो माँ का फ़ोन था। मैंने फ़ोन काट दिया। गुस्सा तो बहुत आ रहा था पर माँ को कुछ भी कहने की जुर्रत नहीं कर सका। पिछले एक हफ्ते से माँ न जाने कितनी बार फ़ोन कर चुकी थीं और हर बार बस एक ही बात दोहराती थीं- बेटा, इस बार घर आ रहे हो ना! मैं उन्हें अनगिनत तर्क देकर ये समझाने की कोशिश कर चुका था कि मेरे पास अभी वक़्त नहीं है, काम का बोझ बहुत है पर माँ तो मानो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी। माँ को मेरी परेशानियों और उलझनों से कोई मतलब ही नहीं, मैं बड़बड़ाने लगा।
मूड पूरी तरह से खराब हो चुका था, मैं तैयार हुआ और बिना नाश्ता किये ही ऑफिस के लिये निकल गया। रात को जब सोने जा रहा था तो माँ के फ़ोन का ख्याल आया। अब तक गुस्सा थोड़ा शांत हो चुका था। माँ तो आखिर माँ होती है, मैंने सोचा और माँ से जुड़ी यादों को सोचकर मुस्कुरा उठा। रात के दस बज रहे थे, शायद माँ-पापा दोनों सो गए होंगे, मैंने सोचा। फिर भी हिम्मत जुटाकर मैंने माँ को फ़ोन मिलाया। फ़ोन उठाते ही माँ ने सवालों की झड़ी लगा दी- सुबह कहाँ था? किसी परेशानी में तो नहीं है? तेरी तबियत तो ठीक है? और भी ना जाने कितने सवाल। माँ के सवालों का सिलसिला शायद खत्म भी नही होता अगर मैं बीच में ये ना कहता कि माँ अब मुझे जवाब देने का मौका दोगी या सवाल ही करती रहोगी। मेरी बात सुनकर माँ हँस पड़ी। फिर माँ पूरे मोहल्ले की खबरें देने लगीं। पता है तुझे वो सुनीता आंटी का बेटा आ गया है, बहुत मोटा हो गया है बचपन में तो तुझसे भी दुबला-पतला था, हमेशा लड़ाई में तू उसको हरा देता था औऱ वो तेरा बचपन का दोस्त मिंटू जो तेरे खिलौने तोड़ दिया करता था इस बार एक बड़ी सी कार लेकर आया है, सभी कह रहे हैं कि बहुत महँगी होगी। अमू भी आई है। अभी तक कि मेरी खामोशी इस बात से टूटी। मैंने चौंकते हुए दोबारा पूछा- अमू आई है? माँ ने बताया कि असलम चाचू की तबियत काफी दिनों से खराब है, उन्ही को देखने आई है, चार-पाँच दिन रुकेगी। फिर हमारी बातों का सिलसिला माँ की उसी एक सवाल से रुका- आओगे ना तुम!
अब दशहरे के सिर्फ तीन दिन ही तो बचे हैं। मैंने माँ से कहा कि मैं आने की पूरी कोशिश करूँगा ।
फ़ोन कटते ही मैं बीते दिनों की यादों में खो गया। आज के लगभग पाँच साल पहले मैं जब अपने परिवार के साथ लखनऊ में रहा करता था, मेरे घर के बिल्कुल सामने का घर जब से मैंने याददाश्त संभाली थी, तब से खाली पड़ा हुआ था। उस घर के सामने एक बड़ा सा लॉन था जो मेरे और मेरे दोस्तों के लिए क्रिकेट ग्राउंड और बैडमिंटन कोर्ट हुआ करता था। स्कूल की छुट्टी होते ही ये घर हमारा अपना हो जाता था। एक दिन मैंने अपने घर के बगल वाले शर्मा अंकल को पापा से ये कहते सुना कि इस खाली मकान में दिल्ली का एक परिवार रहने आ रहा है। उन लोगो ने ये मकान खरीद लिया है और अगले दो दिनों में वे लोग यह आ जायेगे। ये मेरे लिए एक दुखद समाचार था। स्कूल पहुँचते ही मैंने ये समाचार सभी दोस्तों तक पहुचा दिया। सभी इस बात को लेकर बहुत परेशान थे।लेकिन अफसोस जताने के अलावा हम कर भी क्या सकते थे।
दो दिनों के बाद एक बड़ी सी गाड़ी सामने वाले मकान पर आकर रुकी। उस समय मैं स्कूल से लौटकर खाना खा रहा था, आवाज सुनकर मैं बालकनी में आ गया। गाड़ी से चार लोग उतरे – एक दंपति और दो बच्चे। साथ में दो नौकर भी थे। काफी बड़े आदमी हैं सारे सामान पर सरसरी निगाह डालते हुए मैंने मन में सोचा। फिर धीरे-धीरे एक दूसरे के घरों में आने- जाने का सिलसिला शुरू हुआ और कब हम सब एक परिवार बन गए, पता ही नहीं चला। वास्तव में अच्छा वक़्त बहुत तेजी से गुजरता है। वो लोग मुस्लिम थे। असलम चाचू रेलवे में थे और मेरे पापा भी। उम्र में मेरे पापा से छोटे होने की वजह से वो पापा को बहुत इज्जत देते थे और अपने अधिकतर काम उनकी सलाह से करते थे। अपने दोनों बच्चों फैज और अमायरा का दाखिला भी उन्होंने मेरे ही स्कूल में कराया। अमायरा बड़ी थी और फैज छोटा था। वो बहुत कम बोलती थी, मेरे घर से कोई भी चीज लेनी होती तो फैज ही आता था। फैज से मेरी अच्छी पटती थी। हम दोनों घण्टों लॉन में बैठकर बतियाते रहते थे जब तक मेरी माँ या उसकी अम्मी हमें दो-तीन आवाजें देकर बुला ना लें। पापा तो हम दोनों को राम-लखन कहते थे।
अमायरा को घर में सब अमू कहते थे। मैं भी उसे कब अमू कहकर बुलाने लगा, मुझे खुद पता नहीं चला। अमायरा बहुत खूबसूरत थी मेरे दोस्त अक्सर मुझे उसके साथ चिढ़ाते थे। शुरुआत में मुझे बहुत गुस्सा आता था पर कुछ दिनों बाद मुझे भी ये अहसास होने लगा था कि अमू को मैं अपने घर के सामने वाली लड़की से और कुछ ज्यादा मानने लगा हूँ। मैं अक्सर उससे बोलने की कोशिश में रहता था। कभी नोट्स देने के बहाने या कभी कोई पुरानी बुक देने के बहाने। उसका दसवीं का परीक्षा परिणाम आया तो असलम चाचू और उनके परिवार से ज्यादा खुश तो मेरे माँ-पापा थे। पापा पूरे मोहल्ले में अमायरा के अच्छे नम्बरों की घोषणा करते घूम रहे थे और माँ बात-बात में मुझे आगे के लिए सतर्क करने लगीं थी कि बारहवीं में तुझे अमू से भी ज्यादा नम्बर लाने हैं।
हमारे घरों में सभी त्योहारों में एक जैसा उत्साह और उल्लास होता था, चाहे वो दशहरा हो ,दीवाली हो या फिर ईद हो।
दशहरे के त्योहार नजदीक आ रहा था। सभी तैयारियां पहले से ही हो चुकी थीं। पापा और असलम चाचू सुबह से ही अपने पुराने दोस्तों से मिलने जाने वाले थे, माँ और अमू की अम्मी को बाजार जाना था और हम सभी बच्चों को घर और रुकना था क्योंकि हमारी अर्धवार्षिक परीक्षाएँ शुरू होने वाली थीं। दशहरे के दिन जब माँ और अम्मी बाजार जाने लगीं तो फैज भी उनके साथ जाने की जिद करने लगा। माँ की सिफारिश पर उसकी अम्मी उसे बाजार ले जाने को तैयार हो गईं।
मैं अपने कमरे में आया और किताब खोलकर पढ़ने लगा पर मन नहीं लग रहा था। मैं बालकनी में आया देखा कि अमू लॉन में टहल रही है। मैं आज अमू को अपने दिल की बात कह देना चाहता था। मैंने ऊपर से ही उसे आवाज दी ।उसने मेरी तरफ देखा पर कुछ बोल नहीं सका। मैं दौड़कर अपने कमरे में आ गया। फिर थोड़ी देर बाद मैं हिम्मत जुटाकर अमू के घर की तरफ गया। वो अभी भी लॉन में थी। मैंने उसे अंदर बुलाया। अमू, क्या तुम मेरी दोस्त बनोगी, मैंने झिझकते हुए पूछा। वो कुछ बोली नहीं, बस मुस्कुरा दी। फिर मैं ना जाने कितनी देर तक बैठकर उससे बातें करता रहा। उसने भी बहुत सी बातें की ।पहली बार उसको इतना बोलते हुए सुना था मैंने। गाड़ी की आवाज सुनकर मैं कमरे से बाहर निकला। पापा और असलम चाचू वापस लौट आये थे। मुझे अमायरा के कमरे में देखकर असलम चाचू और पापा दोनों ही गुस्से में थे। उस समय तो चाचू ने मुझसे कुछ नहीं बोला। वो अमू को घर के अंदर आने की बात कहकर गुस्से से घर के अंदर चले गए। घर की चाभियाँ मेरे ही पास थीं इसलिए मैं भी घर की तरफ चल दिया। घर का दरवाजा खोलते ही पापा ने मुझे एक थप्पड़ खींच कर मारा और सिर्फ इतना कहा- अमू को मैं अपनी बेटी मानता हूँ। पापा के गुस्से को देखकर मैं उस समय कोई सफाई भी नहीं दे सका। अमू के साथ क्या सुलूक किया गया ये मुझे नहीं पता लेकिन अगले दिन पापा ने शाही आदेश जारी करके कह दिया कि मुझे बाहर रहकर पढ़ना है। मेरे लिए उसी दिन उन्होंने कमरे का इंतजाम भी कर दिया था। मैं जाना तो नहीं चाहता था पर जाना पड़ा। पापा इस मामले में बहुत सख्त थे वे माँ के आँसुओ और मेरे सॉरी के बावजूद अपने फैसले पर अडिग रहे। तब से लेकर आज तक बहुत कुछ बदल चुका था।
बारहवीं में मैं अमू से ज्यादा नंबर लाया था और इस समय अच्छा- खासा पैसा भी कमा रहे था पर पापा आज तक मुझे माफ़ नहीं कर सके थे।पापा ने मुझसे बात करना बन्द कर दिया था। कभी-कभार वो माँ से मेरा हालचाल पूछ लेते थे। इस सबके बीच मैं अमू को बिल्कुल भूल चुका था पर आज माँ के फोन ने मेरे मन की बेचैनी को बढ़ा दिया था। मेरे जेहन में बार-बार अमू का ख्याल आया रहा था। मुझे पता था कि उसकी शादी हो चुकी थी उसकी अम्मी ने शादी का न्योता भी दिया था पर मैं नही पहुँचा था।
रात को ही मैं घर जाने का मन बना चुका था। सोचा कि इसी बहाने अमू से मुलाकात हो जाएगी और उसकी मदद से मैं पापा को भी पूरी बात समझाना चाहता था कि जो कुछ भी उन्होंने सोचा था ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। यही सब सोचते-सोचते मेरी आँख लग गई। सुबह देर से उठा। उठकर मैंने पैकिंग की और घर के लिए निकल पड़ा। माँ को मैंने अपने आने की जानकारी नहीं दी।
मैं रात में घर पहुंचा। डोरबेल बजाई तो दरवाजा पापा ने खोला। मैंने उनके पैर छूए पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। तब तक माँ आ चुकी थी। उन्होंने मुझे प्यार से गले लगा लिया और फिर प्यार भरी शिकायत भी शरू हो गई, फ़ोन करके बता देता तो तेरे लिए कुछ अच्छा सा, तेरी पसंद का खाना बनाकर रखती थी। अच्छा चल, अब जल्दी से चेंज कर ले और किचन में आ जा तब तक मैं कुछ बना देती हूं। मैंने कहा कि रहने दो माँ मुझे भूख नहीं है। पर वो कहाँ मानने वाली थीं । सुबह उठा तो पापा कमरे में नही थे। शायद टहलने गए थे। मैं भी घर से बाहर आ गया। असलम चाचू घर के बाहर बैठे हुए थे। मैं उनका हालचाल लेने के इरादे से उनके पास चला गया। उन्होंने मेरे लिए कुर्सी मंगाई तो अमू कुर्सी लेकर आई। अरे आप! कब आये? उसने मुझे देखकर कहा। आंटी ने बताया नहीं कि आप आने वाले हो। अरे मैंने उनको भी नही बताया था कि मैं आ रहा हूँ, मैंने हँसते हुए कहा। मैंने उसे गौर से देखा, खूबसूरत तो वो पहले से ही थी शादी के बाद और भी सुंदर लगने लगी थी। वो काफी देर तक बातें करती रही। उसे पता था कि पापा मुझसे अब तक नाराज हैं। उसके पति भी उसके साथ आये थे। उसने उनसे भी मुझे मिलाया। वो भी काफी अच्छे स्वभाव के थे। माँ के बुलाने पर मैं घर वापस आ गया।
दशहरे की शाम अमू अपने पति और अम्मी- अब्बू के साथ मेरे घर आई। चाय-नाश्ते के बाद बातें शुरू हो गईं। अमू और उसके पति ने पापा को अकेले में जाकर समझाया और मुझे माफ़ कर देने के लिए कहा। अमू ने उस दिन की उनकी गलतफहमी भी दूर कर दी। थोड़ी देर बाद जब वे लोग वापस बैठक के कमरे में लौटे तो पापा का मिजाज कुछ बदला हुआ था। मैं समझ गया था कि अमू ने पापा को मना लिया है। थोड़ी देर बाद पापा ने हँसते हुए कहा- अमू की तो शादी हो गई, तू कब कर रहा है? सभी लोग हँसने लगे, मैं जाकर पापा के गले से लग गया। मेरी आँखें खुशी के आँसुओ से नम थीं। इतने दिनों बाद पापा ने मुझसे बात की थी मतलब साफ था कि वो मुझे माफ़ कर चुके थे। मेरे लिए ये पल किसी भी अनमोल उत्सव से कम नहीं था। पाँच साल पहले जिस दशहरे के त्योहार में हमारे बीच अलगाव हुआ था, आज उसी दशहरे ने हमें मिलाकर हमारी खुशियां दोगुनी कर दीं। वास्तव में दशहरे के त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। मैंने अमू और उसके पति को थैंक्यू कहा। अमू के पति ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा- भैया अब शादी की तैयारियां शुरू कीजिए और हां मुझे और अमू को अपनी शादी में बुलाना मत भूलिएगा। उनकी बात सुनकर सभी लोग ठहाका मारकर हँस पड़े।
स्वरचित कहानी…
प्रस्तुकर्ता- मानसी पाल ‘मन्सू’
फतेहपुर