एक अधूरी नज़्म
जो अधूरी नज़्म तुमने मेरी जेब में
चुपके से रख छोड़ी थी
वो आज भी वैसे ही रखी है
एक मुकम्मल अंत के इंतिज़ार में
आज भी यदा कदा वो इत्र सी महक उठती है
तुम्हारी उँगलियों की छुअन सी
मेरे हर दिन और रात बीतते हैं
उसी अहसास के साथ
जैसे तुम यहीं कहीं आस पास हो
जैसे चुपके से मेरे कानों में सरगोशियाँ करती
मुझे हौले से छेड़ जाती हो
आँखें खोलता हूँ तो बस एक हवा का झोंका था शायद
सच ही कहा था न तुमने
तुम जब नहीं रहोगी
फिर भी मेरे आस-पास रहोगी हमेशा
उस अधूरी नज़्म का मीठा सा अहसास बन कर….
©️कंचन”अद्वैता”