एकालवी छंद
०१ –
कर्म ही धर्म है ।
धर्म ही कर्म है ।।
कर्म जो भी करें ।
शान से ही करें ।।
दौड़ता आ रहा ।
जो वही पा रहा ।।
सो गया खो गया ।
सुस्त जो हो गया ।।
०२ –
शान्ति है, क्रांति है।
सत्य या, भ्रांति है।।
जीव तो, शान में।
जी रहा, मान में।।
लूट का, माल है।
मोह का, जाल है।।
त्याग दो, भोग को।
मोह के, लोभ को।।
०३ –
कष्ट है, राह में।
सत्य की, चाह में।।
पाँव मत, रोकना।
झूठ पर, टोकना।।
आज वो, कल नहीं।
धर्म में, छल नहीं।।
तोड़ दो, भ्रम सभी।
खत्म हो, तम सभी।।
०४ –
जो यहाँ, सो रहे।
वक्त वो, खो रहे।।
जागता, पा रहा।
भागता, जा रहा।।
कर्मठी, जो यहाँ।
शान में, वो यहाँ।।
आलसी, खो रहा।
बाद में, रो रहा।।