एकांत ये घना है
शीत की निशा है,
एकांत ये घना है,
हवा में है ठिठुरन,
कुछ कंठ भी रुंधा है…
सहज सोच व्याकुल,
स्मृतियों का संग है,
वो विस्मृत से पन्ने,
मेरे साथ अंतरंग है…
एक तीखी सी सिहरन,
तभी आ के बोली,
उद्विग्न क्यों है तू ?
यही जीवन तरंग है…
उबासियों का हासिल,
एक नींद बस नहीं है,
उनींदी आँखों का भी,
एक अपना ही रंग है…
© विवेक’वारिद’*