ऋषि ‘अष्टावक्र’
हम हमेशा से यह सुनते आ रहे हैं कि जिस पेड़ में फल-फूल पूर्ण रूप से आता है वह पेड़ झुका हुआ रहता है अर्थात पूर्णता ही ज्ञान है। यहाँ मैं जिस कथा की चर्चा करने जा रही हूं वह त्रेता युग की घटना है और महर्षि ‘अष्टावक्र’ की कहानी है। ऋषि ‘उद्दालक’ की पुत्री का नाम ‘सुजाता’ था। ऋषि उद्दालक अपनी पत्नी एवं दस सहस्त्र शिष्यों के साथ एक गुरुकुल में निवास करते थे। ऋषि पुत्री सुजाता भी उन्हीं ऋषि-शिष्यों के साथ वेदों का अध्ययन करती थी। उन्हीं शिष्यों में ‘कहोद’ नाम का एक शिष्य था जिसे ऋषि उद्दालक बहुत पसंद करते थे। विद्या समाप्ति के पश्चात उद्दालक ऋषि ने अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या ‘सुजाता’ का विवाह ‘कहोद’ के साथ कर दिया। विवाह के कुछ समय पश्चात सुजाता गर्भवती हो गई। हर माँ की तरह सुजाता भी चाहती थी कि उसकी संतान इतना बुद्धिमान हो कि महान से महान ऋषि भी उसके सामने कमजोर पड़ जाए। इसी उद्देश्य से सुजाता, ऋषि उद्दालक और ऋषि कहोद द्वारा शिष्यों को दिए जाने वाले वैदिक ज्ञान से जुड़ी कक्षाओं में शामिल होने लगी, जिससे गर्भ में पल रहे उसके बालक पर अच्छे प्रभाव पड़ें। एक दिन ऋषि कहोद वेद पाठ कर रहे थे तो सुजाता भी वहीं उनके पास बैठी थी। ऋषि कहोद के वेद पाठ को सुनकर सुजाता के गर्भ में पल रहा बालक गर्भ के भीतर से ही कहा ‘पिताजी आप गलत वेद पाठ कर रहे हैं’। कहोद ऋषि को अपने शिष्यों के सामने गर्भ के अंदर से आई हुई शिशु की यह आवाज अच्छी नहीं लगी। गर्भ के अंदर का शिशु अपने पिता कहोद ऋषि को उनके शिष्यों के सामने ही उन्हें गलत बता रहा था। इससे ऋषि ने अपने आप को अपमानित महसूस किया और कहा ‘तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है’! क्रोध में आकर ऋषि ने अपने गर्भस्थ शिशु को श्राप दे दिया कि जा गर्भ से ही तूने अपने पिता को अपमानित करने का दुःसाहस किया है इसलिए तू अपंग पैदा होगा।
सुजाता ने इस घटना को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया और अपने आने वाले संतान की अच्छी पालन-पोषण के लिए धन इकट्ठा करने की प्रक्रिया में लग गई। इसी उद्देश्य से उसने एक दिन अपने पति को राजा जनक के पास जाने को कहा। सुजाता के कहे अनुसार कहोद ऋषि राजा जनक के पास गए। राजा जनक उस समय एक यज्ञ की तैयारी कर रहे थे लेकिन राजा जनक ने उनसे कहा कि अब वह उस यज्ञ में शामिल नहीं हो सकते हैं क्योंकि उस यज्ञ की तैयारी ‘बंदी’ ऋषि पिछले कई वर्षों से कर रहे हैं। एक दिन ‘बंदी’ ऋषि ने राजा जनक से कहा था कि इस यज्ञ में वही ऋषि शामिल हो सकता है जो उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करेगा। शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार जो ऋषि शास्त्रार्थ में बंदी ऋषि से हारता था उसे नदी में डुबो दिया जाता था। ऐसा करके बंदी ऋषि ने कई ऋषियों को नदी में डुबो कर उनकी हत्या कर दी थी। राजा जनक ने कहोद ऋषि से कहा कि यदि बंदी ऋषि को शास्त्रार्थ में आप पराजीत कर देंगे तभी आप इस यज्ञ में शामिल हो सकते हैं। ऋषि कहोद ने राजा जनक की बात मानकर बंदी ऋषि की चुनौती को स्वीकार कर लिया। शास्त्रार्थ में बंदी ऋषि की जीत हो गई और कहोद ऋषि की हार हुई। शास्त्रार्थ की शर्तों के अनुसार शास्त्रार्थ में हारने के बाद कहोद ऋषि को भी नदी में डूबा दिया गया। यह सुनकर सुजाता अत्यंत दुखी हुई। इन दुखों का सामना करते हुए ही सुजाता ने अपने पुत्र को जन्म दिया। वह बालक जन्म से ही आठो अंगों से विकलांग पैदा हुआ। सुजाता ने अपने पुत्र का नाम ‘अष्टावक्र’ रखा था। ‘अष्टावक्र’ ने अपनी शिक्षा अपने नाना ‘उद्दालक’ ऋषि से लेना शुरू कर दिया। बारह वर्ष की आयु में ही उसने सब कुछ सीख लिया। अष्टावक्र बहुत ही बुद्धिमान और चतुर बालक थे। कहा जाता है कि भगवान कुछ लेता है तो उसके बदले में कुछ देता भी है। अष्टावक्र भी ऐसे ही लोगों की तरह, प्रतिभा के धनी थे। गुरु उद्दालक भी अष्टावक्र से बेहद प्रभावित थे। अष्टावक्र अपने नाना को पिता और मामा ‘श्वेतकेतु’ को अपना भाई समझते थे। एक दिन अष्टावक्र अपने नाना के गोद में बैठे थे तभी ‘श्वेतकेतु’ ने उन्हें हटाते हुए बोला कि हटो ये मेरे पिता हैं। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी। वह तुरंत अपनी माता से पूछे कि मेरे पिता कौन हैं और कहाँ हैं? माता ने अष्टावक्र को सारी बातें बता दी। जब अष्टावक्र को अपने पिता की हत्या और ऋषि बंदी से जुड़ी बातों का पता चला तब उन्होंने ऋषि बंदी को चुनौती देने का निर्णय ले लिया ।
एक दिन अचानक अष्टावक्र और श्वेतकेतु राजा जनक के दरबार में पहुंचे। अष्टावक्र की कुरूपता को देखकर महल के सभी सैनिक उन पर हंसने लगे। सैनिकों को हँसता देख अष्टावक्र भी जोर-जोर से हंसने लगे। अष्टावक्र को हँसता देख कर राजा जनक उन्हें प्रणाम करते हुए बोले ऋषिवर इनके हँसने के कारण का तो पता है लेकिन आपके हँसने का कारण क्या है? कृपया स्पष्ट करें। तभी अष्टावक्र ने जवाब दिया कि महाराज आप इनसे पूछिए कि ‘ये घड़े पर हंस रहे हैं या कुम्भार पर? इंसान की पहचान उम्र और शरीर से नहीं बल्कि उसके गुणों से होती है।’ अष्टावक्र का उत्तर सुनकर राजा जनक को अष्टावक्र की बुद्धिमता समझ में आ गई। उन्होंने अष्टावक्र जी से वहाँ आने का प्रयोजन पूछा। तब उन्होंने अपनी जिज्ञासा बताई कि वे बंदी ऋषि से शास्त्रार्थ के लिए आये हैं। राजा जनक जो भी बंदी ऋषि से शास्त्रार्थ के लिए आता था उसकी पहले स्वयं परीक्षा लेते थे और जो उनकी परीक्षा में सफल होता था उसे ही बंदी ऋषि से शास्त्रर्थ के लिए भेजा जाता था। राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के लिए प्रश्न पूछा कि वह कौन पुरुष है जो तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व, तीन सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है? राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्टावक्र बोले कि राजन! चौबीस पक्षों वाला, छ: ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला, संवत्सर (वर्ष) आपकी रक्षा करे। अष्टावक्र से सही उत्तर सुनकर राजा जनक ने फिर एक प्रश्न किया कि वह कौन है? जो सुप्तावस्था में भी आँख बंद नहीं करता है? जन्म लेने के बाद भी चलने में असमर्थ होता है? कौन हृदय विहीन है और तेजी से बहने वाला कौन है? अष्टावक्र ने उतर दिया कि हे राजन! सुप्तावस्था में मछली अपनी आखें बंद नहीं करती। जन्म लेने के बाद भी अंडा चल नहीं सकता। पत्थर ह्रदयहीन होता है और नदी तेजी से बहती है। अष्टावक्र के उत्तर से राजा जनक प्रसन्न हुए और उन्हें बंदी ऋषि के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति दे दी गई।
अष्टावक्र और बंदी ऋषि का शास्त्रार्थ कई दिनों तक चलता रहा लेकिन इस शास्त्रार्थ का अंत दिखाई नहीं दे रहा था। अष्टावक्र ने एक और प्रश्न किया और अचानक बंदी ऋषि निरुतर हो गए। उन्हें चुप देखकर अष्टावक्र बोले कि आचार्य उत्तर दें, उत्तर दें आचार्य! लेकिन बंदी ऋषि के पास कोई उत्तर नहीं था। उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर लिया और शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार जल समाधि के लिए तैयार हो गए। तभी अष्टावक्र बोले नहीं ऋषिवर मैं आपको जल समाधि देने नहीं आया हूँ। आचार्य बंदी! याद कीजिए आचार्य ‘कहोद’ को, मैं उसी कहोद का पुत्र हूँ। आज मैं विजयी हूँ, आप पराजित हैं। मैं चाहूँ तो आपको जल समाधि दे सकता हूँ परन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा आचार्य बंदी! मैं आपको क्षमा करता हूँ। बंदी बोले ‘प्राण लेने से भी तुने मुझे बड़ा दंड दिया है ‘बाल ज्ञानी’। मुझसे पाप हुआ है, ‘पाप पश्चाताप’ के आग से बड़ा कोई आग नहीं होता है। आचार्य! अष्टावक्र बोले शास्त्र को शस्त्र नहीं बनाएँ आचार्य बंदी। शास्त्र जीवन का विकाश करता है और शस्त्र जीवन का विनाश करता है। हिंसा से कभी किसी ने किसी को नहीं जीता है।
शास्त्रार्थ में अष्टावक्र ने ऋषि बंदी को हरा दिया था। राजा जनक बोले कि शास्त्रार्थ के नियम के अनुसार इन्हें भी नदी में डुबो दिया जाए। तब बंदी ऋषि अपने असली रुप में आए और बोले कि मैं वरुण का पुत्र हूँ और मुझे मेरे पिता ने धरती पर मौजूद उच्च कोटि के संतो को स्वर्ग भेजने के लिए यहाँ भेजा था जिससे कि वे अपना यज्ञ पूरा कर सकें। अब उनका यज्ञ पूरा हो गया है इसलिए नदी में डुबाये गए जितने भी ऋषिगण हैं वे सभी नदी के बांध से वापस आ जाएंगे। सभी लोग नदी के तट पर पहुंचे, वहाँ सभी ऋषिगण खड़े थे। अष्टावक्र ने अपने पिता के चरण स्पर्श किये। तब कहोद प्रसन्न होकर बोले, पुत्र! तुम जाकर ‘समंगा’ नदी में स्नान कर लो इससे तुम मेरे श्राप से मुक्त हो जाओगे। अष्टावक्र ने पिता के कहे अनुसार समंगा नदी में स्नान किया और स्नान के बाद अष्टावक्र के आठों वक्र अंग सीधे हो गए।
जय हिंद