” ऋतु भी इठलाती है ” !!
पावस की बूंदें कमाल है ,
मन को बहलाती हैं !
इंद्रधनुष भी रंग बिखेरे ,
उसमें ढल जाती हैं !!
रीते बादल लौट चले जब ,
संध्या घूंघट खोले !
सतरंगी डोली में बैठे ,
यादों के हिचकोले !
मूक गवाही नभ देता है ,
ऋतु भी इठलाती है !!
रंग समेटे हम बैठे हैं ,
मन की डोर निराली !
कभी हाथ हम खाली बैठे ,
कभी बजाते ताली !
लगे ज़िंदगी बड़ी अनूठी ,
यों ही बल खाती है !!
बिन रंगों के जीवन सूना ,
कैनवास ज्यों खाली !
अगर तूलिका चित्र उकेरे ,
छा जाती है लाली !
अँगड़ाई लेता जब यौवन ,
छवियाँ बहलाती है !!
दुनिया रंगबिरंगी जानो ,
मोहपाश में बांधे !
खुशहाली भी बैठा करती ,
इक दूजे के काँधे !
मुस्कानें जी भर पा जायें ,
वक्त को सहलाती हैं !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )