ऋजुवर्गीय
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हमारे पंखों को दोस्तो‚ये क्या हो गया है।
उड़ान भरने का जज्बा‚क्यों खो गया है?
रगों और शिराओं में उफान है पूर्ववत्।
आँखों की पुतलियों में मंजिल है समाहित।
नहीं‚अँधेरा हुआ नहीं है‚भरी है रौशनी।
सोच हमारी क्योंकर हो गयी है अनमनी?
विश्लेषण का वक्त आ गया लगता है।
आत्म मंथन का वक्त आ गया लगता है।
अर्पित पंखों को किसी यज्ञ में करना नहीं है।
रणाँगण में अरिनरों के समूहों से डरना नहीं है।
सत्र बुलाकर सामूहिक सत्यानाश से बचना है।
हमें भी अपनी नयी पीढ़ी का भविष्य रचना है।
उन मर्यादाओं में बाँध देना चाहते हैं ये हमें।
बार–बार तोड़ते रहे हैं खुद अगर‚सच कहें।
इनके हाथों में हमेशा श्राप का मंत्रित जल है।
इस झूठ से हमें डराने को व बेहद विकल है।
ये असहिष्णु ‚ हमें पढ़ाते हैं सहने का पाठ।
वचन में पारदर्शिता है पर‚मन में तो है गाँठ।
हमारी धरती‚हमारा आकाश अलग क्यों हो?
हम हमेशा जीवन यज्ञ में समिधा क्यों हों?
भयातुर पंख नहीं है‚ है हमारा मन दोस्तो।
उद्धेश्य उपस्थित है खो गये हैं हम दोस्तो।
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अरूण प्रसाद‚पडोली–21 जून 2009