ऊटपटाँग
इक्की दुक्की कुण्डलिया
दोहा और कवित्त
इक्के दुक्के होंसले
परस्त करते जीत
सही कहा है किसी ने
हम आहा ! के नहीं
आह के पुजारी हैं
पहले भी लिखते थे
लिखना आज भी जारी है
पहले दाढ़ी में तिनका
हुआ करता था
दीख जाता था
उसकी भी मैंने
गली निकाली है
चेहरा रहे पाक साफ
इसलिए अब मेरे
पेट में दाढी है
जिसे छुपाए फिरता हूँ
कल तक नादान बना
टहनियों से लदा वृक्ष घना
बकरी भी मिमियाती है
घास छोड़
मेरी ही छाल खाती है
उल्लू भी सर पे बैठा है
वो भी कुछ मुझ से ऐंठा है
हम उल्लू उल्लू बतियाते हैं
मेरे पेड़ पर लगे अँगूर
गोरिल्ले खाते हैं
बेल पर लगे आम को
चमगादड़ कुतर रही है
लोमड़ी आज भी फुदक रही है
अँगूर पके भी तो कीर गिलहरी
ने छीन लिए सब
आस छोड़ दी लोमड़ी ने भी अब
अस्थिपंजर के साथ
घिसट रही है
पैरों के वजन को देह पर लादे
जला रही विगत सुहानी यादें
मन तड़फड़ा उठा है
शब्दजाल फड़फड़ा उठा है
उड़ते ही पता चला
पंखों को तो चूहे कुतर गए
ओंधे मुँह जमीन पे उतर गए
क्या टूटा क्या बचा पता नहीं
श्वास आ जा रही है
नाक के कसीदे से
जैसे चलता जुगाड़ करीने से
अब बस भी करता हूँ
सीए को और कितना उधेडूँगा
ये जमीन आसमान का भेद
जान थोड़ी निचोड़ूँगा
पर्दे के पीछे मेरी भी तो हद है
एक छोटा सा नन्हा सा
आदमक़द है
लिख दिया ऊलजलूल
पर है सम्पाती
डूबती नाव तिनके को खाती
अब आसरा ले रहा हूँ
इसकी भी तो जरूरत है
आज बड़ा ही शुभ मुहूर्त है
सोयों का संसार में
मान बहुत होता है
मैं भी इसी चाह में सोता हूँ
छलक आते हैं सपने
सपने में कविता पाठ
देख यार के ठाठ
किसी मंत्रमुग्ध श्रोता ने टोका
भौंक क्यों रहा है बे
तू आ मंच से नीचे
तुझे दहाड़ सिखाता हूँ
एक कोने में सपना सिकुड़
कर बैठ गया
दहाड़ ऐसी की
भीतर तक धूज गया
मैं सूरज टटोल रहा था
अँधकार के उजाले में
तेल फूँकता जंग लगे ताले में
चाबी कहीं खो गई है
बात अपनी कहता मगर
मेरी कनपटी सो गई है
वो हवा थी
जो हवा हो गई है
धीरे से आवाज आई
जागो मोहन प्यारे
भोर हो गई है
भोर हो गई है ।।
भवानी सिंह “भूधर”
बड़नगर, जयपुर
दिनाँक :- 29/05/2024