ऊंच-नीच की आग
ऊंच-नीच की आग
ऊंच-नीच की आग ये, किसने है पनपाई ,
किस ने रचाया ढोंग ये , जाति किसने बनाई ।
लड़ता ये इंसान क्यों ,लड़ते क्यों भाई- भाई ,
ढूंढो उस इंसान को, जिसने खोदी ये खाई ।।
किस इंसान ने पहले ये, कुटिल चाल चलाई ,
प्यार मोहब्बत देखकर ,हुई न उसको समाई ।
परिवारों के बीच में, सीमा रेखा क्यों बनाई ,
क्रोध की अग्नि इस जग में, किसने है सुलगाई।।
कर्मकांड और लालच ने,पीड़ा सबको पहुंचाई ,
भुगत रहे हैं आज सभी ,उसको दया ना आई ।
धन दौलत के लालच में, वर्ण व्यवस्था चलाई,
संग खेलकर बड़े हुए ,दूर है आज वो भाई ।।
क्या लगता भगवान ने, ऐसी ये सीख पढ़ाई ,
याद करो श्री राम शबरी ने,शबरी की झूठ है खाई ।
सब करते हैं काम तो ,जाति क्यों है बनाई,
तीर्थ स्थल जाने पर , उसने क्यों रोक लगाई ।।
झूठ कपट की चाल से, उसने दौलत कमाई ,
बांटो और तुम राज करो, कैसी ये रीत है भाई ।
छोटी- बड़ी न जात है,दूरियाँ सब ने बढ़ाई ,
भेदभाव का बीज ये बो कर, तलवार दिलों पे चलाई।।
खत्म करो यह ऊंच-नीच, होती है जग हसाई ,
समता के अधिकार को मानो ,प्यार की रुत है आई।
सुविधाएं सबको देना ,सरकार की बारी आई ,
याद करो कुर्बानी वो, जिसने आजादी दिलाई ।।