ऊँचाई …..
ऊँचाई ….
कितना
बौना हो जाता है
इंसान
अपने ही में
खो जाता है इंसान
अक्सर
ऊँचाई पर बेगाना
हो जाता इंसान
ऊँचाई
धन के अभिमान की
किसी पर्वत के शिखर से
कम नहीं होती
अभिमान के चश्मे से
अभिमानी को
हर इंसान
बौना नज़र आता है
यथार्थ में तो
वो हर इंसान से कट जाता है
रह जाता है अकेला
जब वो ऊँचाई पर
वो अपने आप में
कितना बौना हो जाता है
इसीलिये ऊँचाईयाँ
धरातल से बहुत दूर होती हैं
व्योम के क़रीब होती हैं
क्षितिज शून्य होते हैं
सायों के हुजूम होते हैं
तन्हा ज़िंदगी होती है
सच
ऊँचाई पर
कितनी तन्हाई होती है
सुशील सरना/