उड़ा रंग..
उड़ा रंग परवाह नहीं है
नूतन की ना चाह कहीं है
मृत्यु पर न जोर किसी का
जहां बदी थी हुई वहीं है
पतित हो गया डाली से
जो यह बेमन की दूरी है ।
पत्ते का कोई शौक नहीं
है यह उसकी मजबूरी है ।।
तरु की शाखा पर खेला
बचपन में सुख दुख झेला
दुनिया में फिर लगा मधुर
अपनों का सुंदर मेला
खुशियों के ऐंसे मौसम में
अपनों का साथ जरूरी है ।
पत्ते का कोई शौक नहीं
है यह उसकी मजबूरी है ।।
आँधी और तूफान चले
तरुवर को जो सदा छले
फिर भी वह सम खड़ा रहा
तिल तिल उसका रूप ढले
जीवन की आकांक्षा उसकी
प्रतिपल होती पूरी है ।
पत्ते का कोई शौक नहीं
है यह उसकी मजबूरी है ।।