उड़ता पंछी
मैं , उड़ता पंछी
दूर -दूर
उन्मुक्त गगन तक
फैलाकर अपनी पाँखें
उड़ता हूँ
कभी अटकता
कभी भटकता
पाने को मंजिल
इच्छाएँ ,आकांक्षाएँ
बढती जाती
और दूर तक जाने की
खाता हूँ कभी ठोकरें भी
होता हूँ घायल भी
पंख फडफडाते है
कुछ टूट भी जाते हैं
फिर कोई अपना सा ..
कर देता है
मरहम -पट्टी
देता है दाना -पानी
जरा सहलाता है प्यार से
जगाता है फिर से प्यास
और ऊपर उड़ने की
और मैं चल पडता हूँ
फिर से पंख पसार
अपनी मंजिल की ओर ….।