इस जीवन का क्या मर्म हैं ।
सोचे एकांत , एकांत बैठ
इस जीवन का क्या मर्म है
कभी यह शीतल छांव सा
कभी मौसम बहुत गर्म है।
कभी तो नजर आता सच साफ – साफ
कभी हर तरफ फैला भ्रम है।
सोचे एकांत , एकांत बैठ
इस जीवन का क्या मर्म है
कभी यह खुली किताब सा
कभी यह गहरा राज है।
कभी खामोशी और फैला सन्नाटा
कभी हर ओर होती आवाज है।
कभी यह कठोर पत्थर सा
तो कभी फूलों सा नरम है।
सोचे एकांत, एकांत बैठ
इस जीवन का क्या मर्म हैं?
कभी यह स्वच्छंद आसमान में उड़ता
कभी उलझा रिश्तों और समाज के जाल में
कभी खुशी और उल्लास से भरा दिखता
कभी दुख और चिंता की लकीरें पड़ती भाल में
स्वधर्म , स्वकर्तव्य पूर्ण करना
वहीं जीवन, वही जीवन ही परम हैं
सोचे एकांत, एकांत बैठ
इस जीवन का क्या मर्म हैं?
कहे कृष्ण तू कर्म कर,
वही साथ तेरे जाएगा
जिसमें जान लिया खुद को
वही भवसागर पार उतर पाएगा।
कोई न जान पाया यहां
क्या धर्म और क्या अधर्म है?
सोचे एकांत, एकांत बैठ
इस जीवन का क्या मर्म हैं ।
” एकांत “