उस”कृष्ण” को आवाज देने की ईक्षा होती है
मनुष्य और जानवर होने का फर्क को सिर्फ” – विवेक (Conscience)”और “प्राकृतिक ज्ञान / सहज ज्ञान – (Instinct)” की परिभाषा से शायद दर्शा सकते हैं !
यह “कलियुग का श्राप ” ही है के हम अपने इस जीवनकाल के महाभारत में खुद ही एक चक्रव्यूह की रचना कर डालते हैं और यदि विवेक का प्रयोग ना किया तो इस चक्रव्यूह को तोड़ने के प्रयास में खुद ही टूट कर रह जाते हैं ! यह भी उतना ही सत्य है की शायद यह मनुष्य की ही यह आसुरी प्रवृति है के सब से आगे निकल जाने कीऔर सब कुछ जल्दी पा लेने के होड़ मेंअपने विवेक का प्रयोग ना कर, “कलियुग”के शाप केप्रभाव में अपनेविवेक / अंतरात्मा को दबा बिलकुल “दुर्योधन दंभ” से गर्सितअपनों के ही सपनों और आशाओं की हत्या करदेते हैं ! कभी – कभी यही विवेक जब मनुष्यके अंतर्मन को झंझोड़ता है , तो कितनी ही बार यूं लगता है के शायद सिर्फ जानवरों जैसी “Instinct – प्राकृतिक ज्ञान / सहज ज्ञान” भर ही होता तो जीवन सरल और सहज होता, और एक मानव दूसरे मानव को “दानव दृष्टि” से ना देख रहा होता !
और यहीं उस”कृष्ण” को आवाज देने की ईक्षा होती है जो शायद एक बार फिर आ केइस “जीवन रुपी कुरुक्षेत्र” में एक नयी गीता का उपदेश दें , या इस दुर्योधन दंभ से बाहर निकाल , बिलकुल “पार्थ”की तरह ही इस “जीवन रथ के सारथि” बन , इस जीवन युद्ध में विजयी होने का आशीष दें , और इस शरीर की मृत्यु और आत्मा के अनंत होने की दृष्टि और विवेक दे सकें !