उसका बचपन झांक रहा था
आज एक होटल से गुजरी,
एक हकीकत से यूं रूबरु आज मैं
क्योंकर हुई।
मैले चीथड़े और मैला तन जैसे तिरस्कृत हो कोई ।
यूं तो बर्तन मांज रहा था ।
बेवश बचपन झांक रहा था
आंखों में धूमिल सा सपना , प्रत्युत्तर सा मांग रहा था।
झूठे बर्तन की कालिख में, उसका भविष्य झांक रहा था।
वही शादाब है यह तो प्यारा,
जिसको मै कब से ढूंढ रही थी।
कक्षा से गायब रहता है,
अभिभावक से जूझ रही थी।
आने वाले हर बच्चे से,
पता मैं उसका पूछ रही थी।
जो उम्र थी पुस्तकों में बाल पहेलियां सुलझाने की।
बाल्यावस्था उस ढाबे में रोजी-रोटी ढूंढ रही थी
कोमल नरम मुलायम कलाई पतीले से जूझ रही थी।
उसकी आंखें बेचैनी से, चुप चुप मुझको देख रही थी।
साहस जुटाया ,हक सा जमाया।
ढाबे के मालिक से पूछा,
किसने भेजा इसे काम पर।
किसने इसका ख्वाब चुराया,
शिक्षा का अधिकार चुराया।
यह सुनकर मालिक गुर्राया।
यूं ही नहीं रखा हूं इसको,
सारा पैसा पहले चुकाया।
माता-पिता ने इसको बेचा।
सुनकर मेरा दिल भर आया।
रेखा जब तक यूं ही बचपन,
ढाबों और कारखानों में।
बेबस और मजबूर रहेगा।
मेरा शिक्षक यूं ही तलाश कर
मायूस होकर भटकता रहेगा।
मेरे भारत का धूमिल भविष्य, उजाले को तरसता रहेगा।
एक नहीं अनगिनत शादाब,
यूं ही खोजे जाते रहेंगे। ये बेचारे छोड़ किताबें रोजी की तलाश में जाते रहेंगे।
इस बिंदु पर कोई बताएं कैसे होगी शिक्षा पूरी।
यहां प्राथमिकता रोजी की या फिर ,
शिक्षा की ही होगी।