उसका गरूर
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सफलताओं ने भरा आत्म-अहंकार
जय-विजय ने छीनी विनम्रता
हुआ आत्म-तोष का क्षरण
क्षुधा-निवृत मन हो गया क्षुधातुर
नसीब को उसके सब नत
काल-खंड ने जैसे किया उसका वरण
उसके कथन के विरुद्ध हर तर्क बौना
उसकी प्रवीणता जैसे एक,अन्य सब पौना.(३/४)
बदला अच्छाइयों का संसार.
परिवर्तित हुए सारे संस्कार.
उसका ‘मैं’ उसपर हुआ भारी.
श्रेष्ठ वह हुआ बाकी सब भिखारी.
उचित-अनुचित का भेद हुआ स्वाहा.
उसकी आत्मा हुई नग्न,उसीने कहा वाह-वाह.
समृद्धि बढ़ी,अपनत्व घटा. अपरिचित बढ़े.
ऊँचाई बढ़ी,गर्दन घटी. न रहा मिलने को गला.
बगैर उसके हुक्म पत्ता परेशान.
हवा नि:शब्द जैसे श्मशान.
सोच उसका रहा न इन्सान.
गरूर उसका प्रजा हैरान.
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