उल्फ़त में जलता सा इक परवाना लगता है
उल्फ़त में जलता सा इक परवाना लगता है
आहें भरता ठंडी वो दीवाना लगता है
मक़तल में लोगों का जाना आना लगता है
मुश्किल भी क़ातिल का पकड़ा जाना लगता है
तुमको देखा जब से दिल भी अपने पास नहीं
खोए दिल को मुश्किल वापस पाना लगता है
नज़रें झुकती पलकें उसकी लाज से भारी हैं
प्यार हुआ है शायद उसने माना लगता है
रोज़ गले लगकर मिलता रहता वो लोगों से
लोगों की साज़िश से वो अन्जाना लगता है
धनवानों को आज़ादी है मुफ़लिस क़ैदी हैं
दौलत के ढ़ेरों में डूबा थाना लगता है
पंछी क्यूँ आसानी से फंसते हैं जालों में
कारण इसका मुझको आबो-दाना लगता है
इक पल में लगता है जैसे कुछ भी याद नहीं
और कभी इक पल में सब कुछ जाना लगता है
तन्हा ‘आनन्द’ न रहबर है राहें भी भूला
मुश्किल अब तो मुझको मंज़िल पाना लगता है
– डॉ आनन्द किशोर