“उलाहना” ग़ज़ल
भूल जाते हैं वो, इसका गिला भी करना धा,
याद करने का मगर, शुक्रिया भी कहना था।
सिवा मिरे, वो क्यूँ सभी से है मिलता हँस कर,
लब थे ख़ामोश, पर दिल मेँ तो ये उलहना था।
उफ़,तग़ाफ़ुल का एहतिराम था कितना मुश्क़िल,
दूर जाना भी था, दिल में भी उसके रहना था।
उसकी रुसवाइयोँ से ख़ौफ़ज़दा था इतना,
अश्क़ पी पी के भी, गोया मुझे निखरना था।
पयामे-सिलसिला भी, तर्क हुआ मुद्दत से,
ख़तों को उसके, मुझे बार-बार पढ़ना था।
बहार आ के, चली भी गई, सुना हमने,
रँगे-उल्फ़त को बहरहाल, मुझ पे चढ़ना था।
भर नज़र देख तो सकता था, पहली बार मेँ ही,
हाय पर ज़ुल्फ़ को भी, उस ही पल बिखरना था।
फ़तेह का लुत्फ़ भी लेना नहीं आसाँ हरगिज़,
अना से अपनी मुझे शब-ओ-सहर लड़ना था।
अपनी मजबूरियाँ “आशा” करूँ बयां कितना,
सोज़-ए-क़ल्ब मेँ भी, मुझको तो सँवरना था।
ढूंढते-ढूँढते, ख़ुद को, हूँ उसके दर पहुँचा,
मिरे वजूद को आख़िर उसी मेँ मिलना था..!
तग़ाफ़ुल # नज़रन्दाज़ करना, to neglect
एहतिराम # आदर, respect
पयामे-सिलसिला # सन्देशों का आदान प्रदान, exchange of messages
तर्क # टूट जाना, to break
अना # ego, अहंकार
सोज़-ए-क़ल्ब # दिल का दर्द, agony of heart
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