“उलझी हुई जिन्दगानी”
उन गलियों में कैसे जाऊं
जो मेरे लिए अनजानी हैं।
मैं तो खुद हूँ भटका-भटका
उलझी हुई जिन्दगानी है।।
शाम का भूला मगर मैं,
लौटकर कभी घर ना आया।
ना है कहीं कोई ठौर-ठिकाना
मन मैंने मेरा ना कहीं टिकाया।।
आधी-अधूरी
बेरंग-बेनूरी
जिन्दगी की कहानी है।
मैं तो खुद हूँ
भटका-भटका
उलझी हुई जिन्दगानी है।।
किसको निहारूं
कैसे पुकारूं
कि – कोई ना नजर मुझको आए।
बैठा हूँ तन्हा
आश लगाए
कि – तू अब आए
तूं अब आए।।
मैं ना जानू
तुझमें मुझमें
ये कैसी खींचातानी है।
मैं तो खुद हूं भटका-भटका
उलझी हुई जिन्दगानी है।।
-सुनील सैनी “सीना”
जीन्द (हरियाणा) -126102.