उलझता ही रहा हूं मैं
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
समय के ताप में तपकर,निखरता ही रहा हूं मैं।।
भले कंटक मिले मुझको,संभलता ही रहा हूं मैं।।
कभी मैंने नहीं सोचा, कहां से पाउॅगा राहें,
डगर समतल या’ पथरीली,गुजरता ही रहा हूं मैं।
भरोसा था उड़ानों पर, मिलेंगी श्योर इक दिन वो,
सफलता की सु-राहों पर ,रमणता ही रहा हूं मैं।।
नहीं आपे में मैं रहता,कभी जब मैं हुआ हावी,
जरा सी पा सफलता को,उछलता ही रहा हूं मैं।
अटल कैसे करे बर्णन, प्रभू की भव्य लीला का,
समझ कुछ भी नहीं आया,उलझता ही रहा हूं मैं।।
@अटल मुरादाबादी