उम्र
वो रोज व रोज, लम्हा दर लम्हा कुछ कदम चलती है
उम्र … मौत से ही तो गले मिलने को निकलती है
मैं कहती रहती हूं, अक्सर जरा तेज कदमों से तो चल
वो कहती चल हट, तय समय पर ही सब कुछ मिलती है
रात अभी थोड़ी सी बांकी है, ख़वाब भी तो अधूरे है
पलकों के छांव में प्यार का नगर धीरे धीरे बसाती है
मुझको जो तुम बता रहे हो खुद भी तो कभी यार अमल करो
जल्दी जल्दी चल कर तुम उम्र की ढलान पे मौत की बांह धरो
फुर्सत नहीं चलते उम्र को मगर, पलट कर उस ने कह ही दिया
चल हट पगली , समय से पहले बता सूरज भी कभी ढलता है
जो उगता है पूर्व दिशा से निश्चित समय में वो पश्चिम में ढलता है
दिन भर रौशनी बांटते बांटते थक कर रात से फिर गले मिलता है
~ सिद्धार्थ