उम्र की
उम्र की हैं ये कैसी पहेली
दिन-पे-दिन बढ़ती जाएं
कहती हैं,हूं मैं तेरी सहेली
और मुझको ही छल्ती जाएं।।
एक-एक क़दम रखूं मैं जहां
दौड़ती हुई तूं आ जाएं वहां
नादानी में भी दिखाएं होशियारी
और पल-पल मुझको उलझाती जाएं ।।
कभी रिश्तों के धागों में,
कभी सांसों के सरगम में
बांध कर उम्र के डोरी से मुझको
और मुझपे ही हंसती जाए।।
जज़्बातों से खेलें वो मेरे
उम्र संग बढ़े वो मेरे
ख्वाबों को तोड़कर मेरे
और मुझको ही सताती जाएं ।।
जन्मदिन पे मेरे ,वो चहकती फिरें
बादल बनके मेरे आगे-पिछे घिरे
कहती हैं तीनों अवस्था की हूं मैं साथी
और क्षण-क्षण मुझको डशति जाएं ।।
नितु साह(हुसेना बंगरा)