दुनिया में कहीं से,बस इंसान लाना
ज़हन खामोश होकर भी नदारत करता रहता है।
कुछ मज़ा ही नही,अब जिंदगी जीने मैं,
बिन परखे जो बेटे को हीरा कह देती है
गुजर जाती है उम्र, उम्र रिश्ते बनाने में
नशे में फिजा इस कदर हो गई।
भाषा और बोली में वहीं अंतर है जितना कि समन्दर और तालाब में ह
खुशबू बनके हर दिशा बिखर जाना है
एक पीर उठी थी मन में, फिर भी मैं चीख ना पाया ।
मुक्तक
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
*शिक्षा-क्षेत्र की अग्रणी व्यक्तित्व शोभा नंदा जी : शत शत नमन*
ख्वाबों में भी तेरा ख्याल मुझे सताता है