उम्र का पड़ाव और भागदौड़!
जहां एक ओर भीडभाड बढी है,
वहीं नौजवावों की रफ्तार बढी है,
रफ्तार है ऐसी की चलना दूभर,
आफत आ जाती है जैसे अपने ऊपर,
कैसे खुद को बचाऊं इनसे,
व्यथा कहें तो कहें किनसे।
तिल धरने की न जगह सडक पर,
चलना हो गया दूभर इस पर,
आऊं जाऊं कैसे कहीं पर,
अपनी मुश्किल है यहां इसी पर।
सड़कें भी चौड़ी होती जा रही,
भीडभाड भी उतनी बढ़ती जा रही,
रेलमपेला लगा हुआ है,
जाम में चलना कठिन हुआ है,
कहां से आ रहे-कहां जा रहे,
आडे-तिरछे घुसे जा रहे,
दूसरे की नही परवाह किसी को,
अपने मन मर्जी की किऐ जा रहे,
कुछ कहें कभी तो, लड पड़ते हैं,
अपनी जीव पर अड पडते हैं,
हम तो इस सबसे डरे रहते हैं,
पर वे न लिहाज किया करते हैं,
अब बतलाओ, कैसे मिलें हहै।
बढ़ते नहीं ऐसे में मेरे कदम,
है शिकवा शिकायत ऐसे में जिनको,
अब ना कहें आने जाने को हमको !
फिर पुराने दिनों में खो जाता हूं,
कर याद जुबां पर उन्हें लाता हूं,
हम भी तो कभी जवां हुए थे,
लाज लिहाज से भरे हुए थे,
थोड़ी सी भी ऊंच नीच क्या हो जाती,
बात मात-पिता तक गर पहुँच जाती,
कैसे अपने को निर्दोष कह पाते,
अपनी चूक को कैसे जायज ठहराते,
मांबाप का सम्मान न गिर जाये,
अपने पर जो बीते बीत जाए,
पर मर्यादा नहीं टूटने देते थे,
हम अपनी हदों में बंधे रहते थे !
हां तब भीडभाड भी कहाँ हुआ करती थी,
सारी सड़कें सूनसान रहा करती थी,
गाहे बग आहे कोई आता जाता दिखता था,
गाडियों का भी इतना जोर-शोर नहीं रहता था,
दो पहिया वाहनों में, तब साइकिल चला करती थी,
दाएं बांए मुडने पर टन टन किया करती थी,
दुर्घटनाओं की कोई फ्रिक नहीं रहती थी,
सही सलामत घर पहुंचने कि चिंता कहाँ रहती थी,
पर अब सब कुछ बदल सा गया है,
मनुष्य ही नहीं,
मनुष्य का आचार विचार भी बदल गया है,
फिर भी आने जाने की हसरत रहा करती है,
और उलाहनों की फेहरिस्त भी सुनाई पड़ती है।