“उम्मीद की एक पोटली”
क्या बताऊं
कोई शब्द ही नहीं मिलता
मेरी कहानी को लिखने के लिए,
भर कर उम्मीदों का एक बख्शा
चली थी मै उस अनभिज्ञ दुनिया में
अनजान थी मै उस मुक रूपी उलझन से
जो मिलने वाला था मुझें,
पहली रात तो लगा
कितनी खुश नसीब हूं मै
सबका प्यार मिला
इज्ज़त मिली
जो देखा था सपना कभी,
फिर अगली सुबह
शुरू हुई जंग की पहली कड़ी
जिससे मै बिल्कुल ही परे थी
कुदरत का खेल भी कितना अजीब है
जो कभी नहीं सोचा था
वहीं नसीब है,
क्यों एक बोझ की तरह
रखते है लोग
मायके और ससुराल में
क्यों जीना पड़ता है बेटियों को
इसी हाल में…??