उमीद ही ग़लत जगह लगाई है।
होठों पे तेरे फिर वही पहले सी मुस्कान उभर आई है
बदले हुए सरकार तेरे तेवर फिर आज नज़र आई है।
सियासत के रंगीन चौखट पर देखो फिर एक बार
आवाज़ हमारी दबी-कुचली हुई सी ही नज़र आई है।
शहीदों की राख आज फिर सियासत का सामान बनी
जुमले ने देखो होंठों पे जगह अपनी फिर पूरानी पाई है।
हमारी दरकार कि बातें तब भी ग़ायब थी आज भी नदारद है
कौन रोके उन्हें आवाम फिर आज भक्त सी ही मुझे नज़र आई है।
ये भी सितम क्या कम है कि लेते नही वो हमारे दुखों का नाम
शिकायत उन से क्या करें हम ने उमीद ही ग़लत जगह लगाई है।
।।सिद्धार्थ।।