उफ़नते वक्त में
उफन रहा है वक्त
खौल रहा है
बाढ़ से उफनती नदियों की
खौलती धार की तरह
ऊँचे-ऊँचे उठते
इसके ढ़ेहुओं के चपेट में आकर
मचान,खोपरी-झोंपड़ी,कच्चे-पक्के घर
एक तल्ला से लेकर कई तल्लों वाले मकान
बड़ी-बड़ी इमारतें, महलें
एक के बाद एक
देखते ही देखते…
चपचपा कर डूबते चले जा रहे हैं
वक्त के इस उफ़ान में।
हम डरे-सहमे खिड़की के ओट से
झांक कर चुपचाप देख रहे हैं उसे
अपनी ओर बढ़ते हुए
धधकती रक्तिम चक्षुओं से
घूर रहा है हमें
फैला रखा है उसने अपनी
सख्त बाहों को
उसकी नुकीली अंगुलियां आतुर हैं
हमें झपटने को।
इससे पहले कि कल-परसों
या किसी और दिन
ये हमें खींच कर
जकड़ ले अपनी आगोश में
मिटा दे हमारा नामोनिशान
हम जी लेना चाहते हैं
हम जी लेना चाहते हैं एक-एक पल को
बेफिक्री से।
मना लेना चाहते हैं हम
उन अपनों को जो एक अरसे से
रूठे हैं
ले लेना चाहते हैं खैर-खबर
अपने अड़ोसियों-पड़ोसियों के
उड़ा लेना चाहते हैं एक बार हवा में
पतंग और गुब्बारे
शहर के एक छोर पर बसे
मलीन बस्ती के मैले-कुचैले
बच्चों के साथ
मस्ती में नाचना-झूमना चाहते हैं
अनाथालयों में पलते सितारों के साथ
और चाहते हैं हम एक बार फिर से
बचपन की सखियों-बहिनों के संग
माँ की पुरानी साड़ी से
गुड्डे-गुड़ियों को बनाना
बारात सजाना, ब्याह रचाना
गीली मिट्टी से तरह-तरह की मिठाईयां बनाना
दावतें देना और
खिलखिला कर हँसना।
हाँ ! इस उफ़नते वक्त में
हम जीना चाहते हैं
पल-पल बेफिक्री से।
©️ रानी सिंह